Book Title: Samadhitantram
Author(s): Devnandi Maharaj, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 48
________________ समाभित्र अब अपमानादिकके दूर करनेका उपाय बतलाते हैं बन्धयार्य-( यदा ) जिस समय ( तपस्विनः) किसी तपस्वी अन्तरात्माके ( मोहात् ) मोहनीय कर्मके उदयसे ( रागद्वेषौ ) राग और द्वेष (प्रजायते) उत्पन्न हो जावें ( तदा एव ) उसी समय वह तपस्वी ( स्वस्थं आल्मान ) अपने शुद्ध आत्मस्वरूपकी ( भावयेत् ) भावना करे। इससे ३ रागद्वेषादिक (क्षणात् ) क्षणभरमें ( शाम्यतः ) शांत हो जाते हैं। भावार्थ-इन राग, द्वेष, काम, क्रोध, मान, माया और लोभादिरूप कुभावोंकी उत्पत्ति का मूल कारण अज्ञान है । शरीर और आत्माका भेद-विज्ञान न होनेसे ही ये मनोविकार चित्तकी निश्चल वृत्तिको चलाय. मान कर देते हैं। कुभावोंके विनाशका एकमात्र उपाय आत्मस्वरूपका चिंतन करना है। जैसे ग्रीष्मकालीन सूर्यको प्रचण्ड किरणोंके तापसे संतप्त हुए मानव के लिए शीतल जलका पान, स्नान, नन्दनादिकका लेप और वृक्षको सघन छायाका आश्रय उसके उस तापको दूर करने में समर्थ होता है, उसी प्रकार मोहरूपी सूर्यको प्रचण्ड कषायरूपी किरणोंसे संतप्त हुए अन्तरालमाके लिये अपने शुद्ध स्वरूपका चिंतन हो उस तापसे छुडानेका एकमात्र उपाय है ।। ३९ ।। तत्र रागद्वेषयोंविषयं विपक्षं च वर्शयन्नाह या काये मुनेः प्रेम ततः प्रच्याव्य देहिनम् । पर या तदुत्तमे कार्य योजयेत्प्रेम नश्यति ॥४०॥ टीनायनात्मीये परकीये या काये वा शरीर इन्द्रियविषयससंघाते । मुनेः प्रेम स्नेहः । ततः तामात् प्रच्याय घ्यावत्यं । यहिन आत्मानम् । कया? पुखपा विवेकमानेन । पश्चासतमे काये तस्मात् प्रामुक्तकायादुत्तमें शिवानन्दमये । काये बामस्वल्पे । योजयेत् । कया कृत्वा ? बुद्धपा मन्तदृष्टया । ततः किं भवति ? प्रेम मायति कामस्नेहो । भवति ।।४॥ अब उन राग और द्वेषके विषय तथा विपक्षको दिखाते हुए कहते हैं--- अन्वयार्प-( यत्र काये ) जिस शरीरमें ( मुनेः ) मुनिका-अन्तराल्माका (प्रेम ) प्रेम-स्नेह है (ततः) उससे ( बुख्या) भेद विज्ञानके आधार पर ( देहिनम् ) आत्माको ( प्रच्याव्य ) पृथक् करके ( तदुत्तमेकाये) उस उत्तम चिदानन्दमय कायमें- आरमस्वरूपों ( योजयेद)

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