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समाचितंत्र
भावार्थ - मनके विक्षिप्त होनेका वास्तविक कारण अज्ञान है और उसके अविक्षिप्त रहनेका कारण है ज्ञानाभ्यास अतः परद्रव्यमें आत्मबुद्धि आदिरूप अज्ञानके संस्कारोंको हटाना चाहिये और स्व-पर-भेदविज्ञानके अभ्यासरूप ज्ञानके संस्कारोंको बढ़ाना चाहिये जिससे स्वरूपकी उपलब्धि एवं आत्मस्वरूपमें स्थिति हो सके ॥ ३७ ॥
३८
वित्तस्य विक्षेपेऽविक्षेपेव फलं दर्शयन्नाह
अपमानादयस्तस्य विक्षेपो यस्य चेतसः ।
मापमानादयस्तस्य न क्षेपो यस्य चेतसः ॥३८॥
टीका - अपमानो महत्त्व अवज्ञा च स आदियेषां मदेयमात्सर्यादीनां ते अपमानादयो भवन्ति । यस्य चेतसो थियो रागादिपरिणतिर्भवति । यस्य पुनश्वेतसो न क्षपोविक्षेपो नास्ति । तस्य नापमानादयो भवन्ति ||३८||
चित्तके विक्षिप्त और अविक्षिप्त होने पर फल विशेषको दर्शाते हुए पाते हैं-
अन्वयार्थ -- ( यस्य चेतसः ) जिसके चित्तका ( विक्षेपः ) रागादिरूप परिणमन होता है ( तस्य ) उसीके ( अपमानादय: ) अपमानादिक होते हैं । (यस्य चेतसः ) जिसके चित्तका (क्षेपः न ) राग-द्वेषादिरूप परिणमन नहीं होता ( तस्य ) उसके ( अपमानादयः न ) अपमान-तिरस्कारादि नहीं होते हैं ।
भावार्थ -- जब तक चित्तमें रागद्वेषादिक विभावरूप कुत्सित संस्कारोंका सम्बन्ध रहता है तभी तक मन साधारणसे भी बाह्य निमित्तोंको पाकर क्षुभित हो जाता है और अमुक पुरुषने मेरा मान भंग किया, अमुकने मेरा तिरस्कार किया, मुझे नीचा दिखाया इत्यादि कल्पनाएँ करके दुःखित होता है । परन्तु जब विशॆषका मूलकारण राग-द्वेष-मोहभाव दूर हो जाता है तब वह अपने अपमानादिकको महसूस नहीं करता और न उस प्रकारकी कल्पनाएँ ही उसे सताती हैं ।। ३८ ।।
क्षणात् ॥ ३९ ॥
अपमानादीनां चापगमे उपायमाह्यवा मोहात्प्रमयेते रागद्वेषौ तदेव भावयेत्स्वस्वमात्मानं शाम्यतः टोका— मोहान्मोहनीय कर्मोदयात् । या प्रजायेते कल्य ? तपस्थिमः । तवेव रागद्वेषोदयकाल एव । विषयादुव्यावृत्तस्वरूपस्थं भावयेत् । शाम्यत उपशमं गच्छतः । रागद्वेषौ । शणात् वनमात्रेण ||३९||
चत्पद्येते । को ? राम
आत्मानं स्वल्प बाह्य
तपस्विनः ।