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समाषितंत्र इच्छानिरोधरूप तपश्चरण ही कार्यकारी है । आत्मज्ञानसे शून्य केवल शरीरको कष्ट देने वाले तपश्चरण तपश्चरण नहीं है-संसारपरिभ्रमणके ही कारण हैं। उनसे आत्मा कभी भो कर्मोके बन्धनसे छूट नहीं सकता और न स्वरूप में स्थिर हो सकता है। उसको कष्ट-परम्परा बढ़ती ही चलो जाता है ।। ४१ ।। तब्ध फुर्वाणो वहिरात्मा अन्तराश्मा च किं करोतीत्याह
शुभं शरीरं दिव्यांश्च विषयानभिवाञ्छति । उत्पन्नाऽऽत्मभतिदेहे तत्त्वज्ञानी ततश्च्युतिम् ॥४२॥ टोका-हे उत्पन्नात्ममतिबहिरात्मा। अभिवाम्यसि अभिलपति । किन ? शुभं शरीरं । दिपश्चि उसमान् स्वर्गसम्बन्धिनो दा विषयान् अन्तरात्मा कि करोतीत्याष्ठ-तरवशानी सतप्पुतिम् । तत्त्वज्ञानी विवेकी अन्तरात्मा । ततः शरीरादेः । व्युति व्यावृत्ति मुक्तिरूपा अभिवाञ्छति ।।४।।
तपको करके बहिरात्मा क्या चाहता है और अन्तरात्मामें क्या चाहता है, इसे दिखाते हैं
बन्वयार्थ--( दहे उत्पन्नात्ममतिः । शरीरमें जिसको आत्मत्वबुद्धि उत्पन्न हो गई है ऐसा बहिरात्मा तप करके ( शुभं शरोरं च ( सुन्दर शरोर और ( दिव्यान् विषयान् ) उत्तमोत्तम अथवा स्वर्ग के विषय भोगोंको ( अभिवांच्छसि ) चाहता है और ( तत्त्वज्ञानी) ज्ञानी अन्तरात्मा ( ततः ) शरीर और तत्सम्बन्धी विषयोंसे ( च्युतिम् ) छूटना चाहता है।
भावार्थ-प्रज्ञानी बहिरात्मा स्वर्गादिककी प्राप्तिको ही परमपक्की प्राप्ति समझता है और इसीलिए स्वर्गादिकके मिलनेकी लालसासे पंचाग्नि मादि शरीरको क्लेश देनेवाले तप करता है। प्रत्युत इसके, आत्मज्ञानी अन्तरात्माको ऐसी धारणा नहीं होती, वह सांसारिक विषय-भोगोंमें अपना स्वार्थ नहीं देखता- उन्हें दुखदाई और कष्टकर जानता है और इसलिए इन देहभोगोंसे ममत्व छोड़कर दुर्धर तपश्चरण करता हुआ शरीरादिकसे आत्माको भिन्न करनेका प:म यल करता है-तपश्चरणके द्वारा इन्द्रिय और कषायोंपर विजय पाकर अपने ध्येयको सिति कर लेता है ।। ४२ ।। तत्त्वज्ञानीतरयोजन्यकत्वावन्धकस्ले दर्शयन्नाहपरवाहम्मतिः स्वस्मासम्युतो बध्नास्यसंशयम् । स्वस्मिन्नहम्मतिपयस्वा परस्माम्मुध्यते पुषः ॥४३॥