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सभाषितंत्र
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( परमः ) परमात्मा है ( ततः ) इसलिये- -जब कि परमात्मा और आत्मामें अभेद है ( अहं एव ) में ही ( मया ) मेरे द्वारा ( उपास्यः ) उपासना किये जानेके योग्य है ( कश्चित् अन्यः न ) दूसरा कोई मेरा उपास्य नहीं, ( इति स्थितिः ) इस प्रकार ही आराध्य आराधक - भावकी व्यवस्था है ।
भावार्थ - जब यह अन्तरात्मा अपनेको सिद्ध समान शुद्ध, बुद्ध, ज्ञाता, दृष्टा, अनुभव करता हुआ अभेद-भावनाके बल पर शुद्ध आत्मस्वरूपमें तन्मय हो जाता है तभी वह कर्मबन्धनको नष्ट करके परमात्मा बन जाता है। अतएव सांसारिक दुःखोंसे छूटने अथवा दृढ़-बंधन से मुक्त होने के लिए अपना शुद्धात्मस्वरूप ही उपासना किये जानेके योग्य है || ३१ ||
एतदेव दर्शयन्नाह -
प्राव्य विषयेभ्योऽहं मां मथैव मयि स्थितम् । बोधात्मानं प्रपन्नोऽस्मि परमानन्दनिर्थं तम् ||३२||
टीका-मामात्मानम् प्रपन्नः प्राप्तोऽस्मि भवामि । किं कृत्वा ? प्रच्या व्यावत्य केभ्यः ? विषयेभ्यः । केन कृत्वा ? मयेवात्मस्वरूपेणैव करणात्मना । पव स्थित मां प्रपन्नोऽहं ? मयि स्थितं आत्मस्वरूप एक स्थितम् । कथम्भूतं मां ? tered ज्ञानस्वरूपम् । पुनरपि कथम्भूतम् ? परमानन्यनिवृतं परमश्चामावानन्दश्च सुखं तेन निर्वृतं सुखीभूतम् । अथवा परमानन्दमिव सोऽहम् ।। ३२ ।।
आगे इसी बात को और भी स्पष्ट करते हुए कहते हैं
अन्वयार्थ - (अहं) मैं ( मयि स्थितम् ) अपनेही में स्थित ज्ञानस्वरूप ( परमानन्दनिर्वृतम् ) परम आनन्दसे परिपूर्ण ( मां ) अपनी आत्माको ( विषयेभ्यः ) पंचेन्द्रियोंके विषयोंसे ( प्रच्याव्य ) छुड़ाकर ( मया एव ) अपने ही द्वारा ( प्रपन्नोऽस्मि ) आत्मस्वरूपको प्राप्त हुआ हूँ ।
भावार्थ - जिस परमात्मपदके प्राप्त करनेको अभिलाषा है वह शक्तिरूपसे इस आत्मामें ही मौजूद है; किन्तु उसकी व्यक्ति अथवा प्राप्ति इन्द्रिय-विषयोंसे विरक्त होकर ज्ञान और वैराग्यका सुदृढ़ अभ्यास करनेसे होती है । इसलिए हमें चाहिए कि हम जोवन्मुक्त परमात्मा के दिव्य उपदेशका मनन करके उसके नक्शेकदम पर चलें और उन जैसी वीतरागध्यानमयी शक्ति - मुद्रा बनकर चैतन्य जिनप्रतिमा बननेको कोशिश करें तथा उनकी सौम्याकृतिरूप प्रतिबिम्बका चित्र अपने हृदय पटल पर
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