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समाधितंत्र
मनु परमतपोऽनुष्ठामिना महादुःखोत्पत्तितो मनः क्षेवसद्भावात्कयं निर्वाणप्राप्तिरिति वदन्तं प्रत्याह
आस्मदेहान्तरज्ञानजनिताल्हावनिर्वृतः।
सपसा तुष्कृतं घोरं भुञ्जानोऽपि न खिद्यते ॥३४॥ दोका-आत्मा च देहश्च तयोरनरजानं भेदशानं नेन जनितश्यासावा हायश्च परमप्रसत्तिस्तेन नितः सुखीभूतः सन् तपसा द्वादशविधेन कृत्वा । दुनातं घोरं भुन्यानोऽपि दुष्कर्मणो रौद्रस्य विपाकमनुभवन्नपि में सिखते न खेद गच्छति ॥३४॥ __ यदि कोई आशंका करे कि मुक्ति के लिए घोर तपश्चरण करने वालोंके महादुःखोंको उत्पत्ति होती है और उस दुःखोल्पत्तिसे चित्तमें बराबर खेद बना रहता है सब उनको मुक्तिको प्राप्ति कैसे हो सकती है ? उत्तरमें कहते हैं
अन्वयार्थ ( आत्मदेहांतरज्ञानजनिताल्हानिर्वृतः ) आत्मा और शरीरके भेद-विज्ञानसे उत्पन्न हुए आनन्दसे जो आनन्दित है वह (तपसा) तपक रादिस प्रकारका सदा उसमें गये हुए ( घोरं दुष्कृत) भयानक दुष्कर्मो के फलको (भुजानः अपि) भोगता हुआ भी (न खिद्यते) खेदको प्राप्त नहीं होता है।
भावार्थ:-जिस समय इस जीवके अनुभव में शरीर और आत्मा भिन्नभिन्न दिखाई देने लगते हैं, उस समय शारीरिक विषय-सुखोंके लिये परपदार्थकी सारी चिन्ता मिट जाती हैं, उसके फलस्वरूप आत्मा परमा। नन्दमें लीन हो जाता है-उसे दुखका अनुभव ही नहीं होता। क्योंकि संसारमें इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, रोग और भूख-प्यासादिजन्य जितने भी दुःख हैं वे सब शरीरके आश्रित हैं-शरीरको आत्मा माननेसे उन सब दुखोंमें भाग लेना पड़ता है । जब भेद विज्ञानके द्वारा शरीरसे ममस्व छूटकर आत्मा स्वरूपमें स्थिर हुआ आनन्दमान हो जाता है तब वह तपश्चरणके कष्टोंको महसूस नहीं करता और न तपश्चरणके अवसर पर आए हुए उपसर्गादिकोंसे खेदखिन्न ही होता है । उसका आनन्द अवाषित रहता है ।। ३४ ॥ खेदं गच्छतामात्मस्वरूपोपसम्भाभाव दर्शयन्ताह
रागद्वेषा विकारलोलेरलोलं यन्मनो जलम् ।
स पश्याश्यात्मनस्तस्य स तस्वं नेतरो जनः ॥३५॥ १. तसत्त्वं, इति पाठशन्तर 'क' पुस्तके !