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समानितंत्र मढ़ात्मा यत्र विश्वस्तस्ततो नान्यद्भयास्पदम् ।
यतो भीतस्ततो नान्यदभयस्थानमात्मनः ॥२९॥ टोका-मूढारमा बहिरात्मा । पत्र शरीरपुषकलादिषु । विश्वस्सोऽव. चकाभिप्रायेण विश्वास प्रतिपन्नः-मदीया येते अहमेतेषामिति बुद्धि गत इत्यर्थः । ततो नान्यदयास्पदं ततः शरीरादेन्यिद्भयास्पदं संसारदुःखवासस्थास्पद स्थानम् । यसो भीतः परमात्मस्वरूपसंवेदनाभीतः त्रस्तः । ततो मान्यवभवस्थान सतः स्वसंवेदनात नान्यत् अभयस्म संसारदुःखत्रासाभावस्य स्थानमास्पदम् । सुखास्पदं ततो नान्यदित्यर्थः ॥२९॥
यदि कोई आशंका करे कि परमात्माकी भावना करना तो बड़ा कठिन कार्य है, उसमें तो कष्ट परम्पराके सद्भावके कारण भय बना रहता है, फिर जीवोंकी प्रवृत्ति उसमें कैसे हो सकती है ? ऐसो आशंका. का निराकरण करते हुए कहते हैं____ अन्वयार्थ--( मूढात्मा ) अज्ञानी बहिरात्मा ( यत्र ) जिन शरीरपुत्रमित्रादि बाह्यपदार्थोंमें ( विश्वस्तः) 'ये मेरे हैं, मैं इनका हूँ' ऐसा विश्वास करता है (ततः) उन शरीर-स्त्री-पुत्रादि बाद्यपदार्थोस { अन्यत् ) और कोई ( भयास्पद न ) भयका स्थान नहीं है और ( यतः) जिस परमात्मस्वरूपके अनुभवसे ( भीतः ) डरा रहता है ( ततः अन्यत्) उसके सिवाय दूसरा ( आस्मनः) आत्माके लिये ( अभयस्थान न) निर्भयताका स्थान नहीं है।
भावार्थ-जैसे सर्पसे बसा हुआ मनुष्य कडुवा नीम भी रुचिसे चबाता है उसी प्रकार विषय-कषायों में संलग्न हुए जीवको दुःखदाई शरीरादिक बाह्यपदार्थ भो मनोहर एवं सुखदाई मालूम होते हैं और पित्तज्वर वाले रोगोको जिस प्रकार मधुर दुग्ध कडूवा मालम होता है उसी प्रकार बहिरात्मा अशानो जीवको सुखदाई परमात्मस्वरूपकी भावना भो कष्टप्रद मालूम पड़ती है और इसी विपरीत बुद्धिके कारण यह जीव अनादिकालसे दुखी हो रहा है। वास्तवमें इस जीवके लिए परमात्मस्वरूपके अनुभवके समान और कोई भी सुखदाई पदार्थ संसारमें नहीं है और न शरीरके समान दुखदाई कोई दूसरा पदार्थ ही है ॥ २९ ॥ तस्यात्मनः कीदृशः प्रतिपत्त्युपाय हत्याह
सन्द्रियाणि संयम्य स्तिमितेमान्तरात्मना । यत्क्षणं पश्यतो भाति तसत्वं परमात्मनः ॥३०॥