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समाचितंत्र
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अन्वयार्थ - ( मां ) मेरे आत्मस्वरूपको ( अपश्यन् ) नहीं देखता हुआ ( अयं लोकः ) यह अज्ञ प्राणिवृन्द ( न मे शत्रुः ) न मेरा शत्रु है ( न च प्रियः } और न मित्र है तथा ( मां ) मेरे आत्म स्वरूपको ( प्रपश्यन् ) देखता हुआ (अयं लोकः ) यह प्रबुद्ध प्राणिगण ( न मे शत्रुः ) न मेरा शत्रु है ( न च प्रियः ) और न मित्र है ।
भावार्थ - आत्मज्ञानी विचारता है कि शत्रु-मित्रको कल्पना परिचित व्यक्ति में ही होती है - अपरिचित व्यक्ति में नहीं । ये संसारके बेचारे अशप्राणी जो मुझे देखते जानते हो नहीं- मेरा आत्मस्वरूप जिनके चर्मचक्षुओंके अगोचर है- वे मेरे विषय में शत्रु-मित्रकी कल्पना कैसे कर सकते हैं ? और जो मेरे स्वरूपको जानते हैं---मेरे शुद्धात्मस्वरूप साक्षात् अनुभव करते हैं-उनके रागद्वेषका अभाव हो जानेसे शत्रु-मित्रताके भावकी उत्पत्ति नहीं बनतो, फिर वे मेरे शत्रु वा मित्र कैसे बन सकते हैं ? इस तरह अज्ञ और विज्ञ दोनों ही प्रकारके जीव मेरे शत्रु या मित्र नहीं हैं ॥ २६ ॥
अन्तरात्मनो बहिरात्मत्वत्यागे परमात्यप्राप्ती चोपायत्वं दर्शयन्नाह— महिरात्मानमन्तरात्मव्यवस्थितः ।
भावयेत्परमात्मानं सर्वसंकल्पवजितम् (तः) ॥२७॥
टीका - एवमुक्तप्रकारेणान्तरात्मव्यवस्थितः सन् बहिरात्मा व्यवस्था परनातं भावयेत् । कथंभूतं ? सर्व संकर पर्वाजिस विकल्पजालरहित अथवा ससंकल्पवजितः सन् भावयेत् ||२७||
बहिरात्मनेका त्याग होने पर अन्तरात्मा के परमात्मपदको प्राप्तिका उपाय बतलाते हुए कहते हैं
अन्वयार्थ - ( एवं ) इस प्रकार ( बहिरात्मानं ) बहिरात्मपनेको ( त्यक्त्वा ) छोड़कर (अंतरात्मव्यवस्थितः ) अंतरात्मामें स्थित होते हुए ( सर्वसंकल्पवर्जित ) सर्वसंकल्प - विकल्पोंसे रहित ( परमात्मानं ) परमास्माको ( भावयेत् ) ध्याना चाहिए ।
भावार्थ- बहिरात्मावस्थाको अत्यंत हेय ( त्यागने योग्य ) समझकर छोड़ देना चाहिये और आत्मस्वरूपका हायक अन्तरात्मा होकर जगत्के द- फंद चिंता आदि से मुक्त हुआ आत्मोत्थ स्वाधीन सुखकी प्राप्ति के लिये परमात्मा के चितन आराधन पूर्वक सद्रूप बननेकी भावना करनी चाहिये ॥ २७ ॥