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समाजितंत्र
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यदि कोई पूछे कि जिस आत्मस्वरूपसे तुम अपनेको अनुभव करते हो वह कैसा है, उसे बतलाते हैं
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अग्वयार्थ - ( यत् अभावे ) जिस शुद्धात्मस्वरूपके प्राप्त न होनेसे ( अ ) मैं ( सुषुप्तः ) अब तक गाढ़ निद्रा में पड़ा रहा हूं- मुझे पदार्थोंका यथार्थं परिज्ञान न हो सका - ( पुनः ) और ( यत् भावे ) जिस शुद्धात्मस्वरूपकी उपलब्धि होने पर में (ब्युत्थितः ) जागरित हुआ हूँयथावत् वस्तुस्वरूपको जानने लगा है ( तत् ) वह शुद्धात्मास्वरूप ( अतीन्द्रियं ) इन्द्रियोंके द्वारा ग्राह्य नहीं है ( अनिर्देश्य ) वचनोंके भी अगोचर है कहा नहीं जाता। वह तो ( स्वसंवेद्यं ) अपने द्वारा आपही अनुभव करने योग्य है । उसी रूप ( अहं अस्मि ) मैं हूँ ।
भावार्थ - जब तक इस जोवको शुद्ध चैतन्यरूप अपने निजस्वरूपकी प्राप्ति नहीं होती तब तक ही यह जीव मोहरूपी गाढ़निद्रानें पड़ा हुआ सोता रहता है; किन्तु जब अज्ञानभावरूप निद्राका विनाश हो जाता है और शुद्धस्वरूपकी प्राप्ति हो जाती है उसी समयसे यह जागरित कह लाता है । संसारके रागी जीव व्यवहारमें जागते हैं किन्तु अपने आत्मस्वरूपमें सोते हैं; परन्तु मात्मज्ञानी संयमी पुरुष व्यवहारमें सोते हैं और आत्मस्वरूपमें सदा सावधान एवं जाग्रत रहते हैं' ।। २४ ।।
तत्स्वरूपं स्वसंवेदयतो रागादिप्रक्षयान्न क्वचिच्छत्रु मित्रव्यवस्था भवतीति दर्शयन्नाह -
क्षीयन्तेऽत्रैव रामाद्यास्तस्वतो मां प्रपश्यतः । दोधारमानं ततः कश्चिन्न मे शत्रुर्न च प्रियः ॥२५॥
ठीका — अब न केवलम किन्तु अत्रैव जर्मन सी के ते ? रामाखाः आदी भवः कायः राग आयो येषां देशदीनां ते तथोक्ताः किं कुर्वन्तस्ते श्रीयसे ? सरमतो मां प्रपश्यतः । कपम्भूतं मां ? बोषात्मानं शानस्वरूपं ।
१. जो सुतो ववहारे सो जोई जग्गए सकज्जम्मि । जो जन्मधि बवहारे सो सुतो मध्य कज्जे ॥
या निशा सर्व भूतानां तस्यां जगति संयमी । यस्यां धाप्रति भूतानि सा निशा एस्तो मुनेः ॥
- मोक्ष प्राभूते, कुन्दकुन्दः
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