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समाधितंत्र
टोका-नना चैतन्यस्वरूपेण " इत्यंभावे तृतीया" । महमनुभूये केन कर्त्रा ? आत्मनैव अनन्येन । केन कारणभूतेन ? खात्मना स्वसंवेदनस्वभावेन । क्व ? आत्मनि स्वस्वरूपे । सोऽहं इत्यंभूतस्वरूपोऽहं तत् न नपुंसकं साम स्त्री । नासो न पुमान् अहं । तथा नैको न रहे। स्त्रीत्वादिधर्माणां कर्मोत्पादित देहस्वरूपत्वात् ॥२३॥
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अब आत्मामें स्त्री आदि लिङ्गोंके तथा एकत्वादि संख्याके भ्रमको दूर करनेके लिये और इन विकल्पोंसे रहित आत्माका असाधारणस्वरूप दिखलाने के लिये कहते हैं
अन्वयार्थ - ( येन ) जिस (आत्मना ) चैतन्यस्वरूपसे ( अहम् ) मैं ( आत्मनि ) अपनी आत्मामें ही ( आत्मना ) अपने स्वसंवेदनज्ञानके द्वारा ( आत्मनैव ) अपनी आत्माको आप ही ( अनुभूये ) अनुभव करता हूँ ( स ) वही शुद्धात्मस्वरूप (अहं) में ( न तत् ) न तो नपुंसक हूँ (नसा) न स्त्री है ( न असो) न पुरुष हूँ ( न एको ) न एक हैं ( न द्वौ ) न दो हूँ (वा) और ( न बहुः ) न बहुत हूँ ।
भावार्थ - अन्तरात्मा विचार करता है कि जीबमें स्त्री-पुरुष आदिका व्यवहार केवल शरीरको लेकर होता है; इसी प्रकार एक दो और बहुवचनका व्यवहार भी शरीराश्रित है अथवा गुणगुणीकी भेदकल्पनाके कारण होता है; जब शरीर मेरा रूप ही नहीं है और मेरा शुद्धस्वरूप निर्विकल्प है तब मुझमें लिंगभेद और वचनमेद कैसे बन सकता है ? ये स्त्रीत्वादिधर्म तो कर्मजनित अवस्थाएं है। मेरा निजरूप नहीं है--मेरा शुद्ध चैतन्य स्वरूप इन सबसे परे है ।। २३ ।।
येनात्मता त्वमनुभूयते स कीदृशः इत्याह
यदभावे सुषुप्तोऽहं यद्भावे व्युत्थितः पुनः । अतीन्द्रियमनिर्देश्यं तरम्य संवेद्यमस्म्यहम् ॥ २४॥
टीका - यस्य शुद्धस्य स्वसंवेद्यस्य रूपस्य प्रभावे अनुपलम्भे । सुप्तो यथावत्पदार्थपरिज्ञानाभावलक्षणमिद्रया गाढाक्रान्तः । माये यस्य तत्स्वरूपस्य भावे उपलम्भे । पुनभ्युत्थितः विशेषेोत्थितो जागरितोऽहं यथावरस्वरूपपरिछिपरिणत इत्यर्थः । किविशिष्टं तत्स्वरूपं ? मतीनिियं इन्द्रियं रजन्यमंत्र च। मनिषयं शब्दविकल्पागोचरस्यादिदंतयाऽनिवन्तया वा निर्देष्टुमशक्यम् । तदेवंविधं स्वरूपं कुतः सिद्धमित्या तत्स्वयं तदुक्तप्रकारकस्वरूपं स्वसंवेदनप्रा नीति ||२४||