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समापितष
है अथवा कर्माका कर्ता और भोक्ता कहलाता है, किन्तु जब समस्त विभाव-भावोंका अभावकर आत्मा सम्पूर्ण पदार्थोंका ज्ञाता-द्रष्टा हुआ आत्मद्रव्यमें स्थिर हो जाता है तब वह अपने गृहीत स्वरूपसे' च्युत नहीं होता और तभी उसे परमब्रह्म या परमात्मा कहते हैं। जीवकी यह स्थिति ही उसकी वास्तविक स्थिति है ॥ २० ॥ इत्यंभूतात्मपरिज्ञानात्पूर्व कीदृशं मम चेष्टितमित्याह
उत्पन्नपुरुषभ्रान्तेः स्थाणो यद्विचेष्टितम् । सन्म चेष्टितं पूर्व बेहाविष्वास्मविभ्रमात् । ॥ २१ टीका-उत्पन्नपुरुषभान्त: पुरुषोऽयमित्युत्पन्मा भ्रान्तियंस्य प्रतिपत्तुस्तस्य । स्मानौ स्थाणुविषये । यद्यत्प्रकारेण । विवेष्टितं विविधमुपकारापकाराविरूप बेष्टित विपरीत या पेष्टित । तत् तत्प्रकारेण । ये वेष्टितं । क्व ? बेहावित। कस्मात् ? आत्मविश्नमात् आत्मविपर्यासात् । का? पूर्वम् उक्तप्रकारात्मस्वरूपपरिज्ञानात् ।। २१ ॥
'इस प्रकारके आत्मज्ञानके पूर्व मेरी कैसी चेष्टा थी', अन्तरात्माके इस विचारका उल्लेख करते हैं___ अन्वयार्थ--( स्थाणो) स्थाणुमें ( उत्पन्नपुरुषभ्रान्तेः ) उत्पन्न हो गई है पुरुषपनेकी भ्रान्ति जिसको ऐसे मनुष्यकी (यवत् ) जिस प्रकार (विचेष्टितम् ) विकृत अथवा विपरोत चेष्टा होती है ( तहत् ) उसी प्रकारको ( देहादिषु ) शरीरादिक परपदार्थों में (आत्मविभ्रात् ) आत्माका भ्रम होनेसे (पूर्व) आत्मज्ञानसे पहले (मे) मेरी (चेष्टितम्) पेष्टा थी।
भावार्य-अन्तरात्मा विचारता है कि जैसे कोई पुरुष घ्रमसे वृक्षक हँठको पुरुष समझकर उसके अपने उपकार-अपकाराविकी कल्पना करके सुखी-दुखो होता है उसी तरह में भी आस्मशानसे पूर्वको मिष्याल अवस्थामें प्रमसे शरीरादिकको आत्मा समझकर उससे अपने उपकार अपकारादिकी कल्पना करके सुखी-दुखी हुआ है ॥ २१ ।। साम्प्रतं तु तत्परिज्ञाने सति कीदृशं मे बेष्टितमित्याहयथाऽसौ चेष्टते स्थाणी निवृते पुरुषाग्रहे। तथाचेष्टोऽस्मि बेहादौ विनिवृसारमविभ्रमः॥ २२ ॥ टीकाधा उत्पन्नपुरुषभ्रान्तिः पुरुषाग्रहे पुरुषाभिनिवेशे निवृत्तं पिगटे पतित पायेन पुरुषाभिनिवेषण नितोपकारापकाराएवमकरणभूतेनपरित्यागका