Book Title: Samadhitantram
Author(s): Devnandi Maharaj, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 37
________________ २८ इत्यादिन्यतो यथावदात्मानं पश्यतो रागादयः प्रक्षीणास्ततस्तस्मात् कारणात् म मेरिन व नैव प्रिय मित्रम् ||२५|| आत्मस्वरूपका अनुभव करने वालेकी आत्मामें रागादि दोषोंका अभाव हो जानेसे शत्रु-मित्रकी कल्पना हो नहीं होतो, ऐसा दिखाते हैं अभ्ययार्थ - [ यतः ] क्योंकि ( बोधात्मानं ) शुद्ध ज्ञानस्वरूप ( मां ) मुझ आत्माका ( तत्त्वतः प्रपश्यतः ) वास्तव में अनुभव करने वाले के ( अत्र एवं ) इस जन्म में ही ( रागाद्यः ) राग, द्वेष, क्रोध, मान, मायादिक दोष ( क्षीयन्ते ) नष्ट हो जाते हैं ( ततः ) इसलिये ( मे ) मेरा ( न कश्चित् ) न कोई ( शत्रुः ) शत्रु है ( न च ) और न कोई ( प्रियः ) मिश्र है । भावार्थ- जब तक यह जीव अपने निजानन्दमयो स्वाभाविक निराला सुधाभूतका काम नहीं करता तब तक ही वह बाह्य पदार्थीको भ्रमसे इष्ट-अनिष्ट मानकर उनके संयोग-वियोगके लिये सदा चिन्तित रहता है और जो उस संयोग-वियोगमें साधक होते हैं उन्हें अपना शत्रु-मित्र मान लेता है, किन्तु जब आत्मा प्रबुद्ध होकर यथार्थ वस्तुस्थितिका अनुभव करने लगता है तब उसकी रागद्वेषादिरूप विभागपरिणति मिट जाती है और इसलिये बाह्य सामग्री के साधक-बाधक कारणों में उसके शत्रु-मित्रताका भाव नहीं रहता। वह तो उस समय अपने ज्ञानानन्दस्वरूपमें मग्न रहना ही सर्वोपरि समझता है ।। २५ ।। विश्वमन्यस्य कस्यचिन्न शत्रुभित्र वा तचापि तवाश्यः कश्चिद्भविष्यतीत्याशंक्याह- मामपश्यन्नयं लोको न मे मां प्रपश्यन्नर्य लोको न मे टीका-किमात्मस्वरूपे प्रतिपन्नेऽप्रतिपन्ने वाऽयं कोको मभि शत्रु मित्रभावप्रतिपद्यते ? न सावप्रतिपन्ने । मामपश्यन्नर्य लोकोम मे शत्रु प्रमः । प्रतिपन्ने हि वस्तुस्वरूपे रागानुत्पतामतिप्रसङ्गः । नापि प्रतिपन्ने । यतः म प्रपन्न कोको न मे शत्रुगं च प्रियः । कात्मस्वरूपप्रतीती रागाविकप्रक्षमा कर्म क्वचिदपि शत्रुमिवमात्रः स्यात् ? ।। २६॥ यदि कोई कहे कि भले ही तुम किसी दूसरेके शत्रु मा मित्र न हो परन्तु तुम्हारा तो कोई अन्य शत्रु वा मित्र अवश्य होगा, इस शंकाका समाधान करते हुए कहते हैं शत्रुनं च प्रियः । शत्रुमं च प्रियः ॥२६॥

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