Book Title: Samadhitantram
Author(s): Devnandi Maharaj, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 28
________________ समाधितंत्र त्यक्त्वा मन्तःप्रषिशेत आत्मन्यात्मबुद्धि कुर्यात् अन्तरात्मा भवेदित्यर्थः । कथंभूतः सन् ? पहिरण्यापतेनिायः बहिर्बाह्यविषयेषु अव्यापूतान्यप्रवृत्तानीन्द्रियाणि यस्य ॥१५॥ ___ अब बहिरात्माके स्वरूपादिका उपसंहार करके देहमें आत्मबुद्धिको छोड़नेकी प्रेरणाके साथ अन्तरारमा होनेका उपदेश देते हुए कहते हैं अन्वयार्थ—( देहे) इस जड़ शरीरमें ( आत्मधीः एव ) आरमबुद्धिका होना ही ( मंसारदुःखस्य ) संसारके दुःखोंका ( मूलं) कारण है । (ततः) इसलिए ( एनां ) शरीर में आत्मत्वको मिथ्या कल्पनाको ( त्यक्त्वा) छोड़कर (बहिरव्यापतेन्द्रियः) बाह्य विषयोंमें इन्द्रियोंकी प्रवृत्तिको रोकता हुआ ( अन्तः ) अन्तरंगमें अर्थात् आस्मामें ही (प्रविशेत् ) प्रवेश करे। भावार्थ-संसारके जितने भी दुःख और प्रपंच हैं वे सब शरीरके साथ ही होते हैं। जब तक इस जीवको बाह्यपदार्थों में आत्मधुद्धि रहती है तब तक हो आत्मासे शरीरका सम्बन्ध होता रहता है और घोर दुःखोंको भोगना पड़ता है । जब इस जीवका शरीरादि परद्रव्योंसे सर्वथा ममस्वभाव छूट जाता है तब किसी भी वाहपदार्थ में लाना रमजार रूप बुद्धि नहीं होती तथा तत्त्वार्थका यथार्थ श्रद्धान होनेसे आत्मा परम सन्तुष्ट होता है। और साधकभावकी पूर्णता होनेपर स्वयमेव साध्यरूप बन जाता है। इसी कारण इस ग्रंथमें ग्रंथकारने समस्त दुःखोंकी जड़ शरीरमें आत्मबुद्धिका होना बताया है और उसके छड़ाने की प्रेरणा की है। अतः संसारके समस्त दुःखोंका मूल कारण देहमें आत्मकल्पनारूप बद्धिका परित्याग कर अन्तरात्मा होना चाहिये, जिससे घोर दुःखोसे छुटकारा मिले और सच्चे निराकुल सुखकी प्राप्ति होवे ॥ १५ ॥ ___अंतरात्मा आत्मन्यात्मबुसि कुर्वाणोऽलब्धलाभात्संतुष्ट आत्मीयां वहिरात्मावस्थामनुस्मृत्य विषावं कुर्वनाह-- मत्तश्यपुत्वेन्द्रियाः पतितो ( पतितो ) विषयवहम् । सान प्रपद्याऽहमिति मा पुरा देव न सस्वतः ॥ १६ ॥ टीका-मतः आत्मस्वरुपात । स्वा यावत्य । अहं पतितः ( पतितः) अस्यासन्तया प्रवृत्तः । क्य ? विषयेत् । कः कृत्वा ? इप्रियद्वार: इन्द्रियमुखः । ततस्तान् विषयान् प्रपा ममोपकारका एते इरमसिणगानुसस्य । म बास्मान । बरन शाप्तवान् । कथं ? अहमित्युल्लेखेन अहमेवाहं न शरीराषिकमित्येवं तत्वतो न ज्ञातवानित्यर्थः । कथा ? पुरा पूर्व अनादिकाले ॥ १६ ॥

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