Book Title: Samadhitantram
Author(s): Devnandi Maharaj, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 29
________________ समामिलन अपनी आत्मामें आत्मबुद्धि धारण करता हुआ अन्तरात्मा जब अलब्ध लाभसे सन्तुष्ट होता है तब अपनी पहली बहिरामावस्थाका गारग कर विषाद मारता हु विचारता है अम्बयार्य-( अहं ) में ( पुरा) अनादिकालसे ( मत्तः) आत्मस्वरूपसे ( च्युत्वा ) च्युत होकर ( इन्द्रि यद्वारैः ) इन्द्रियोंके द्वारा ( विषयेषु ) विषयों में (पतितः ) पतित हुआ है-अत्यासक्तिसे प्रवृत्त हुआ हूँ [ ततः । इसी कारण ( तान् ) उन विषयोंको ( प्रपद्य ) अपने उपकारक समझ कर मैंने ( तत्त्वतः ) वास्तव में ( मां) आत्मा को [ महइति ] मैं हो आल्मा हूँ इस रूपसे ( न वेद ) नहीं जाना—अर्थात् उस समय शरीरको ही आत्मा समझनेके कारण मुझे आत्माके यथार्थ स्थरूपका परिज्ञान नहीं हुआ। भावार्थ-जब तक इस जीवको अपने चैतन्य स्वरूपका यथार्थ परिशान नहीं होता तभी तक इसे बाह्य इन्द्रियोंके विषय सुन्दर और सुखदाई मालूम पड़ते हैं । अब चैतन्य और जड़का भेद-विज्ञान हो जाता है और अपने निराकुल चिदानन्दमयी सुधारसका स्याद आने लगता है तब ये बाह्य इन्द्रियोंके विषय बड़े ही असुन्दर और काले विषधरके समान मालम पड़ते हैं। कहा भी हैएवमभिमन्यमानाचासौ किं करोतिस्याह "जायन्ते विरसा रस विघटते गोष्ठी कथा कौतुक, शीर्यन्ते विषयास्तथा विरममति प्रीतिः शरीरेऽपि च । जीवं वापि धारयंत्यविरतानंदास्मनः स्वात्मन श्चितायामपि यातुमिच्छतिमनो दोषैः समं पंचताम् ।" अर्थात्-आत्माका अनुभव होने पर रस विरस हो जाता है, गोष्ठी, कथा और कौतुकादि सब नष्ट हो जाते हैं, विषयोंसे सम्बन्ध छूट जाता है, शरीरसे भी ममत्व नहीं रहता, वाणी भी मौन धारण कर लेती है और आत्मा सदा अपने शांत रसमें लीन हो जाता है तथा मनके दोषोंके साथ-साथ चिंता भी दूर हो जाती है। इसी कारण यह जीव जिन भोगोंको पहले मिथ्यात्व दशामें सुखका कारण समझकर भोगा करता था उन्हींके लिए सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा होने पर पश्चात्ताप करने लगता है। यह सब भेदविज्ञानको महिमा

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