Book Title: Samadhitantram
Author(s): Devnandi Maharaj, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 15
________________ समाषितंत्र ननु-निकलेतररूपमात्मानं नत्वा भवान् कि करिष्यतीत्याहश्रुतेन लिगेन यथात्मशक्ति समाहितान्तः करणेन सम्यक् । समीक्ष्य केवल्पसुखस्पृहाणां विविक्तमारमानमयाभिषास्ये ॥३॥ दीका-अप हाटदेवतानमस्कारकरणानन्तरं । अभिषास्ये फर्शयस्यै । क ? विविक्तमात्माम कर्ममल रहित जीवस्वरूपं । कथमभिधास्ये ? ययात्मशक्ति आत्मशक्तेरनतिक्रमण । कि कृत्वा ? समीक्य तथाभूतमात्मानं सम्पग्ज्ञात्वा । केन ? भुतम--- "एगो मे सासओ आदा णाणदसणलालगो। सेसा में बाहिरा भाषा सर्व संजोगलक्षणा" ॥१॥ 'इत्याचागमेन । सभा लिन हेतुना । तथाहि-शरीरादिरात्मभिग्नोभिन्नलक्षणलक्षितत्त्वात् । यबोभिन्नलक्षणलक्षितत्त्वं तयो दो पथा जहानलयोः, भिन्नलक्षणलक्षितत्त्वं चात्मशरीरयोरिति । न घानयोभिन्नलक्षणलक्षितत्वमप्रसिद्धम् । आत्मनः उपयोगस्वरूपोपलक्षितस्थात्-शरीरादेस्तद्विपरीतत्त्वात् । समाहिलात फरकन समाहितमेकाग्रीभृतं तव तदन्तः करणं च मनस्तेन । सम्यक-समीक्य सम्यग्ज्ञात्वा अनुभू येत्यर्थः । केषां तथाभूतमात्मानमभिधास्ये? कैवल्पतुसत्यहाना कैवल्ये सकलकर्मरहितस्वे सति सुख तत्र स्पहा अभिलाषो येषां वस्ये विषयाप्रभवे या मुझे; कंवल्यसुखयोः स्पष्ठा येषाम् ॥३॥ अब ग्रंथकार ग्रन्थके प्रतिपाय विषयको बतलाते हुए कहते हैं--- भन्दया--( अथ ) परमात्माको नमस्कार करनेके अनंतर [ अहं ] मैं पूज्यपाद आचार्य ( विविक्तं मात्मान ) कर्ममल रहित आत्माके शुद्धस्वरूपको ( श्रुतेन ) शास्त्रके द्वारा (लिगेन ) अनुमान व हेतुके द्वारा { समाहितन्तःकरणेन ) एकाग्र मनके द्वारा ( सम्यक्समीक्ष्य ) अच्छी तरह अनुभव करके (केवल्य-सुखस्पहाणां) कैवल्यपद-विषयक अथवा निर्मल अतीन्द्रयसुखकी इच्छा रखने वालोंके लिये ( यथास्मशक्ति ) अपनी शक्तिके अनुसार ( अभिधास्ये) कहूँगा 1 भावार्थ-यहाँ पर उस शुद्धात्मस्वरूपके प्रतिपादनकी प्रतिज्ञा की गई है जिसे ग्रंथकारने शास्त्रज्ञानसे, अनुमानसे और अपने चित्तको एकाप्रतासे भले प्रकार जाना तथा अनुभव किया है। साथ ही, यह भी बतलाया है कि यह ग्रन्थ उन भव्य पुरुषों को लक्ष्य करके लिखा जाता है जिन्हें कोंके क्षयसे उत्पन्न होने वाले बाधा-रहित, निर्मल, अतीन्द्रिय सुखको प्राप्त करनेको इच्छा है । वास्वखे-समयसारादि जेनागम ग्रन्थों

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