Book Title: Samadhitantram
Author(s): Devnandi Maharaj, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 16
________________ संभाषितंत्र से मालूम होता है कि आत्मा एक है, नित्य है, ज्ञानदर्शन-लक्षणवाला है (शाता-द्रष्टा है ) और शेष संयोग-लक्षण वाले समस्त पदार्थ मेरी आत्मासे बाह्य हैं-मैं उनका नहीं हूँ और न वे मेरे हैं । अनुमानसे जाना जाता है कि शरीर और आत्मा जुद-जुदे हैं। क्योंकि इन दोनोंका लक्षण भी भिन्न-भिन्न है। जिनका लक्षण भिन्न-भिन्न होता है वे सब भिन्न होते हैं, जैसे जल और आग । इस तरह आगम और अनुमानके सहयोगके साथ चित्तकी एकाग्रतापूर्वक आत्माका जो साक्षात् अनुभव होता है वह तीसरी चीज है। तीनों लापः रस: है. इस प्रथक रचनको प्रतिज्ञा की गई है ।। ३ ।। कतिभेदः पुनरात्मा भवति? येन विविक्तमाल्मानमिति वियोष उच्यते । तत्र कुतः कस्योपावानं कस्य वा त्यागः कर्तव्य इस्पाशक्याह 'बहिरन्तः परश्चेति निधारमा सर्वदेहिषु । उपेयात्तत्र परमं मध्योपायाबहिस्त्यजेत् ।।४।। ___ौका-बहिर्बहिरात्मा, अन्तः अन्तरात्मा, परराच परमात्मा इति विषा आत्मा त्रिप्रकार मात्मा । क्व ? सविहिषु सकलप्राणिषु । ननु अभन्मेषु यहिरात्मन एव सम्भवात् कथं सर्वदेहिषु त्रिधात्मा स्यात् ? इत्यप्यनुपपन्न तत्रापि व्यरूपतया त्रिधात्मसद्भावोपपत्तेः कयं पुनस्तत्र पंचज्ञानावरणान्युपपद्यन्ते? केवलज्ञानाचाविर्भावसामग्री हि तर कदापि न भविष्यतीत्यभम्पत्वं, न पुनः तद्योगजव्यस्परभावादिति । भव्यराश्यपेमया वा सर्वदेहिग्रहणं । आसन्नदूरदूरतरभन्येषु अभव्यसमान भन्येषु च सर्वेषु त्रिपाऽरमा विद्यत इति । तहि सर्वशे परमात्मन एव सद भावाद् बहिरन्तरात्मनोरभावास्त्रिधात्मनो बिरोध इत्यप्ययुक्तम् । मृत्तपूर्वप्रज्ञापननयापेक्षया तत्र सहिरोधासिद्धेः घृतपटवत् । यो हि सर्वज्ञावस्थायां परमात्मासम्पन्नः स पूर्व वहिरामा अन्तरात्मा चासीदिति । घृतपटवपन्तरात्मनोऽपि अहिरस्त्मत्वं परमात्मत्वं च भूतभाविप्रज्ञापननयापेक्ष या द्रष्टव्यम् । तब कुतः कस्योपावानं कस्य का त्यागः कर्तव्य इत्याइ--उपेमाविति । तेषु त्रिधात्मसु मध्ये उपेयात् स्वीकुर्यात् परमं परमात्मानं । कस्मात् ? मम्योपाचात् मम्मोत्तरात्मा स एवोपायस्तस्मात् तथा बहिः बहिरात्मानं मध्योपायादेव स्यवेत ॥४॥ बास्मा कितने तरहका होता है, जिससे शुद्धात्मा ऐसा विशेष कहा १. तिपयारो सो अप्पा परमतरमाहिरो( देहीणं । तत्व परो भाज्जा अंतोवाएण पयहि बहिरपा ।। -मोक्षप्रामृते, कुन्धन्दः ।

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