Book Title: Samadhitantram
Author(s): Devnandi Maharaj, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 21
________________ १२ स्टिंग तथाभूतश्च सन्नसौ किं करोति ? स्वात्मनो देहमात्मत्वेन व्यवस्यति मात्मीय शरीरमेवामिति प्रतिपद्यते ||७|| अब यह दिखलाते हैं कि बहिरात्मा के देहमें आत्मतत्त्व बुद्धि होनेका क्या कारण है अन्वयार्थ - मतः ] चूँकि ( बहिरात्मा ) बहिरात्मा (इन्द्रियद्वारे) इन्द्रियद्वारोंसे ( स्फुरितः ) बाह्य पदार्थों के ग्रहण करने में प्रवृत्त हुआ (आत्मज्ञानपराङ्मुखः ) आत्मज्ञानसे पराङ्मुख [ भवति, ततः ] होता है इसलिये (स्वात्मनः दह) अपने शरीरको ( आत्मस्वेन अध्ययस्पति ) आत्मरूप से निश्चय करता है—अपना आत्मा समझता है ? भावार्थ- मोहके उदयसे बुद्धिका विपरीत परिणमन होता है। इसी कारण बहिरात्मा इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण में आने वाले बाह्य मूर्तिक पदार्थों को ही अपने माना है। उसे अभ्यन्तर आत्मतत्वका कुछ भी ज्ञान या प्रतिभास नहीं होता है । जिस प्रकार धतूरेका पान करने वाले पुरुषको सब पदार्थ पीले मालूम पड़ते हैं, ठीक उसी प्रकार मोहके उदयसे उन्मत्त हुए जीवोंको अचेतन शरीरादि पर पदार्थ भी चेतन और स्वकीय जान पड़ते हैं। इसी दृष्टिविकारसे आत्माको अपने वास्तविक स्वरूपका परिज्ञान नहीं हो पाता और इसलिये यह जीवात्मा शरीरको उत्पत्ति से अपनी उत्पत्ति और शरीर के विनाशसे अपना विनाश समझता है ॥ ७ ॥ तच्च प्रतिपद्यमानो मनुष्यादि चतुर्गौतसम्बन्धिशरीराभेदेन प्रतिपद्यते तत्र -- 'रहस्थमात्मानमविद्वान् मन्यते नरम् । तिर्यश्च तिर्यगग्रस्थं सुरांगस्यं सुरं तथा ॥८॥ नारकं नारकाङ्गस्थं न स्वयं तस्वतस्तथा । अनंतानंतधीशक्तिः स्वसंवेद्योऽचल स्थितिः ॥९॥ टोका-नरस्य देहो नरदेहः तत्र तिष्ठतीति नरदेहस्थस्तमात्मानं सपते 1 कोऽसौ ? अविद्धान् बहिरात्मा । तियंत्रमात्मानं मन्यते । कथंभूर्त ? पिङ्ग १. "सुरं त्रिवचपर्मायन पर्यायस्तथा नरम् । तिचं च तदङ्गे स्वं नारकाङ्ग च नारकम् ।। ३२-१३ ।। देयविद्या परिश्रान्तो महस्वन्न पुनस्तया । किन्त्वमूर्तं स्वसंवेश्वंतत्रयं परिकीर्तितम् ॥ १४ ॥ —शनार्थमचंद्रः ।

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