Book Title: Samadhitantram
Author(s): Devnandi Maharaj, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 25
________________ १६ समाधितंत्र ही अपनी आत्माका सम्बन्ध समझता है और इसी कारण उनको अपना उपकारक मानता है, उनकी रक्षाका यत्न करता है, उनके संयोग तथा वृद्धिमें सुखी होता है, उनके वियोग में अत्यन्त व्याकुल हो उठता है । और यदि कदाचित् उनका बर्ताव अपने प्रतिकूल देखता है तो अत्यन्त शोक भी करता है तथा भारी दुःख मानता है। वस्तुतः जिस प्रकार पक्षीगण नाना दिग्देशोंसे आकर रात्रिमें एक वृक्ष पर बसेरा लेते हैं और प्रातःकाल होते ही सबके सब अपने-अपने अभीष्ट ( इच्छित ) स्थानों को चले जाते हैं। उसी प्रकार ये संसारके समस्त जीव नाना गतियोंसे लाकर कर्मोदयानुसार एक कुटुम्बमें जन्म लेते हैं व रहते हैं । यह मूढात्मा व्यर्थ ही उनमें निजत्वकी बुद्धि धारणकर आकुलित होता है की ऐसी गुणिन नहीं होता, और इसी से स्त्री-पुत्रादि विषयक विभ्रम से बचा रहता है ॥ ११ ॥ + एवंविध विभ्रमाच्च किं भवतीत्याह अविश्वासंज्ञितस्तस्मात्संस्कारो जायते वृढः" । पैन लोकोऽङ्गमेव स्वं पुनरप्यभिमन्यते ॥ १२ ॥ ठीका तस्माद्विभ्रमाद् बहिरात्मनि संस्कारो वासना बुढोऽविचलो बत्यते । किन्नामा ? अविधासहितः अविधाः संज्ञाऽस्य संजातेति "तारकाविस्य इतम्" । येत संस्कारेण कृस्वा लोकोऽविवेकिजिनः । अंगमेव शरीरमेव । एवं आत्मानं । पुनरपि जन्मान्तरेऽपि । अभिमन्यते ॥ १२ ॥ स्त्री-पुत्रादिमें ममत्वबुद्धि-धारणरूप विभ्रमका क्या परिणाम होता है, उसे बतलाते हैं अन्वयार्थ - ( तस्मात् ) उस विभ्रमसे ( अविद्यासंज्ञितः) अविद्या नामका ( संस्कारः ) संस्कार ( दृढः ) दृढ़-मजबूत ( जायते ) हो जाता है (येन ) जिसके कारण ( लोक: ) अज्ञानी जीव (पुनरपि ) जन्मान्तरमें भी ( अंगमेव ) शरीरको ही ( स्वं अभिमन्यते ) आत्मा मानता है । भावार्थ - यह जीव अनादिकालीन अविद्याके कारण कर्मोदयजन्य पर्यायोंमें आत्मबुद्धि धारण करता है— कर्मके उदयसे जो भी पर्याय मिलती है, उसीको अपना आत्मा समझ लेता है, और इस तरह १. मिच्छामासु रको मिच्छाभावेण भाविओो संतो । मोहोदयेण पुणरवि अंगं सम्मण्णए ममुबो ॥ ११ ॥ - मोकप्राभूते, कुन्दकुन्दः ।

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