Book Title: Samadhitantram
Author(s): Devnandi Maharaj, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 22
________________ समाचितंत्र १३ तिरश्चामङ्ग तिर्यगङ्ग तत्र तिष्ठतीति तिर्यगङ्गस्थस्तं । सुराङ्गवं आत्मानं सुरें तथा मन्यते ||८|| नारकमात्मानं मन्यते । किविशिष्टं ? मारकाङ्गस्थं । न स्वयं तथा नरादिरूप आत्मा स्वयं कर्मोपाधितरेण न भवति । कथं तस्वतः परमातो न भवति । व्यवहारेण तु यदा भवति तदा भवतु । कर्मोपात्रिकृता हि जीवस्य मनुष्यादिपर्यायास्तन्निवृत्तौ निवर्तमानत्वात् न पुनर्वास्तवा इत्यर्थः । परमार्थतस्तहि कीदृशोऽसावित्याह- अनन्तानन्तधीशक्ति: धीरच दाक्सिश्च घीशक्ती अनन्तानन्ते ची शक्ती यस्य । तथाभूतोऽसी कुतः परिच्छेद्य इत्याह स्वसंवेद्यो "निरुपाधिक हि रूपं वस्तुनः स्वभावोऽभिधीयते । कर्माद्यपाये चानन्तानन्तत्रीशक्तिपरिणत आत्मा स्वसंवेदनेन वेद्यः । तद्विपरीतरित्यनुभवस्य संसारावस्थायां कर्मोपाषिनिर्मितत्वात् । अस्तु नाम तथा स्वसंवेद्यः कियत्कालमसौ न तु सर्वदा पश्चात् तद्रूपविनाशादित्याह – अचल स्थिति: अनंतानंतधीशक्तिस्वभावनांचला स्थितिर्यस्व सः | यः पुनर्योगसांख्यैर्मुक्तो तत्प्रच्युतिरात्मनोऽभ्युपगता ते प्रमेयकमलमार्तण्डे चार दिसाः प्रत्याख्याशः ॥ 31 इसी बात को स्पष्ट करते हुए मनुष्यादि चतुर्गतिसम्बन्धी शरीर भेदसे जीवमंदकी मान्यताको बतलाते हैं- अन्वयार्थ - ( अविद्वान् ) मूढ बहिरात्मा ( नरदेहस्थं ) मनुष्य देहमें स्थित ( आत्मा ) आत्माको ( नरम् ) मनुष्य, ( तिर्यगजस्यं ) तियंच शरीरमें स्थित आत्माको ( तिथेचं ) तिथेच ( सुराङ्गस्थ ) देवशरीरमें स्थित आत्माको ( सुरं) देव ( तथा ) और ( नारकाङ्गस्थ ) नारकशरीरमें स्थित आत्माको ( नारक ) नारकी ( मन्यते ) मानता है । किन्तु ( तस्वतः ) वास्तव में - शुद्ध निश्चयनयकी दृष्टिसे ( स्वयं ) कर्मोंपाधिसे रहित खुद आत्मा ( तथा न ) मनुष्य, तिच देव और नारकीयरूप नहीं है ( त्वत्तस्तु ) निश्चयनयसे तो यह आत्मा (अनंतानंतधीशक्तिः ) अनन्तानन्त ज्ञान और अनन्तानन्तशक्तिरूप वीर्यका धारक है | ( स्वसंवेद्यः ) स्वानुभवगम्य है-- अपने द्वारा आप अनुभव किये जाते योग्य है और (अचलस्थिति: ) अपने उक्त स्वभावसे कभी च्युत न होने वाला - उसमें सदा स्थिर रहने वाला है । भावार्थ - यह अज्ञानी आत्मा कर्मोदयसे होने वाली नरनारकादिपर्यायोंको ही अपनी सच्ची अवस्था मानता है । उसे ऐसा भेदविज्ञान नहीं होता कि मेरा स्वरूप इन दृश्यमान पर्यायोंसे सर्वथा भिन्न है। मले ही इन पर्यायोंमें यह मनुष्य है, यह पशु है इत्यादि व्यवहार होता है, परन्तु ये सब अवस्थाएं कर्मोदयजन्य हैं, जड़ है और आत्माका वास्तविक

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