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जय और पराजय
अनिर्वचनीय माधुर्य और एक बृहद् व्याप्त विरहव्याकुलतासे सभा-मन्दिर परिपूर्ण हो गया । कोई साधुवाद भी न दे सका। ___ जब इस भावकी प्रबलता कुछ कम हुई, तब पुण्डरीकजी सिंहासनके सम्मुख आये । राधा कौन है और कृष्ण ही कौन है ? यह पूछकर उन्होंने चारों ओर नजर डाली और शिष्यों की ओर देखकर कुछ हँसकर फिर प्रश्न किया-राधा कौन है और कृष्ण ही कौन है ? इसके बाद असामान्य पाण्डित्यका विस्तार करते हुए उन्होंने स्वयं ही उत्तर देना प्रारम्भ किया
राधा प्रणव ओंकार, कृष्ण ध्यान योग, और वृन्दावन दोनों भौंहोंके बीचका बिन्दु है । ईडा, सुषुम्ना, पिङ्गला, नाभि-पद्म, हृत्पद्म, ब्रह्मरंध्र श्रादि सभीको ला पटका । इसके बाद राधा और कृष्ण शब्दके 'क' से मूर्द्धन्य 'ण' पर्यन्त प्रत्येक अक्षरके जितने भिन्न भिन्न अर्थ हो सकते हैं, उन सबकी खूब विस्तारके साथ मीमांसा की । एक बार समझाया कि कृष्ण यज्ञ और राधिका अग्नि है। फिर बतलाया कि कृष्ण वेद और राधिका षड्दर्शन है । फिर समझाया कि कृष्ण शिक्षा राधिका दीक्षा ; राधिका तर्क कृष्ण मीमांसा ; राधिका उत्तर प्रत्युत्तर और कृष्ण जय-लाभ है। __ यह कहकर राजाकी ओर, पण्डितों की ओर और अन्तमें तीव्र हास्यके साथ शेखरकी ओर देखकर पुण्डरीकजी बैठ गये ।
राजा पुण्डरीककी आश्चर्यकारिणी शक्ति देखकर मुग्ध हो गये, पण्डितोंके विस्मयकी सीमा न रही और राधाकृष्णकी नई नई व्याख्या
ओंसे वंशीका गान, यमुनाकी कल्लोलें और प्रेमका मोह बिलकुल दूर हो गया। मानो किसी मनुष्यने पृथ्वीपरसे वसंतका हरा रंग पोंछकर उसके बदले शुरूसे अखीर तक पवित्र गोमय लीप दिया !