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जय और पराजय
प्रत्येक ईंटको मानो उन्होंने ( हृदय - स्रोतोंने ) स्पर्श किया, आलिंगन किया ; चुम्बन किया ; ऊपर अन्तःपुरके झरोखों तक पहुँचकर राजलक्ष्मीस्वरूप प्रासाद-लक्ष्मियों के चरणों में स्नेहार्द्र भक्ति भावसे नमस्कार किया ; और वहाँ से लौटकर राजा और राज-सिंहासन की बड़े भारी उल्लासके साथ सैकड़ों बार प्रदक्षिणा की। अन्तमें कविने कहा – महाराज, वाक्योंसे तो हार मान सकता हूँ; परन्तु भक्ति में मुझे कौन हरा सकता है ? यह कहकर वे काँपते हुए बैठ गये । उस समय आँसुओं के जलसे नहाई हुई प्रजा जयजयकारसे श्राकाशको कम्पित करने लगी ।
साधारण जनताकी इस उन्मत्तताको धिक्कारपूर्ण हँसी में उड़ाकर पुण्डरीकजी फिर उठ खड़े हुए। उन्होंने गरजकर पूछा- वाक्यकी अपेक्षा और कौन श्रेष्ठ हो सकता है ? यह सुनकर सब लोग घड़ीभर के लिए मानो स्तब्ध हो रहे ।
पुण्डरीकजी नाना छन्दों में श्रद्भुत पाण्डित्य प्रकाशित करके वेद वेदान्त, आगम निगम आदि प्रमाणित करने लगे कि विश्वमें वाक्य ही सर्वश्रेष्ठ है । वाक्य ही सत्य और वाक्य ही ब्रह्म है । ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि सभी वाक्यके वशवर्ती हैं, अतएव वाक्य उनसे भी बढ़ा चढ़ा है। ब्रह्माजी अपने चारों मुखोंसे वाक्यका अन्त न पाकर आखिर चुपचाप ध्यान-परायण होकर वाक्य हूँढ रहे हैं ।
इस तरह पाण्डित्यपर पाण्डित्य और शास्त्रपर शास्त्र के ढेर लगाकर वाक्यके लिए एक अभ्रभेदी सिंहासन निर्माण कर दिया गया । उन्होंने वाक्यको मर्त्यलोक और सुरलोकके मस्तकपर बैठा दिया और फिर बिजली के समान कड़ककर पूछा- तो अब बतलाइए कि वाक्यकी पेक्षा श्रेष्ठ कौन है ? इसके बाद पुण्डरीकजीने बड़े दर्प के साथ चारों श्रर देखा; और जब किसीने कुछ उत्तर नहीं दिया, तब धीरे धीरे अपना आसन ग्रहण कर लिया । पण्डितगण 'धन्य धन्य' और 'साधु