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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 35 of 583 ISBN # 81-7628-131-
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अनुपचरित- असद्भूत- व्यवहारनय है, जैसे जीव का शरीर, आत्मा द्रव्यकर्मों का कर्ता और उसके फलस्वरूप सुख-दुःख का भोक्ता हैं जीव यथा सम्भव द्रव्यप्राणों से जीता हैं
भो ज्ञानी! आगम की भाषा में असद्भूत- व्यवहार नय तीन प्रकार का कहा है
(1) स्वजाति असद्भूत (2) विजाति असद्भूत (3) स्वजाति-विजाति असद्भूतं
(1) परमाणु को बहुप्रदेशी कहना स्वजाति असद्भूत व्यवहारनय का उदाहरण हैं (2) मतिज्ञान मूर्त है, क्योंकि मूर्त द्रव्य से उत्पन्न हुआ है, विजातिअसद्भूत व्यवहार नय है
(3) ज्ञान का विषय होने के कारण जीव-अजीव ज्ञेयों में ज्ञान का कथन करना स्वजाति-विजातिअसद्भूत- व्यवहारनय हैं
इसी प्रकार आगम भाषा में उपचारितअसद्भूत- व्यवहारनय के भी तीन उपनय कहे गये हैं जैसे
1. पुत्र-स्त्री आदि मेरे हैं ऐसा कथन करना स्वजाति- उपचरित- असद्भूतव्यवहार उपनय हैं 2. वस्त्र, आभूषण, स्वर्ण आदि मेरे हैं, ऐसा कहना विजाति- उपचरित असद्भूतव्यवहार उपनय हैं 3. देश, राज्य, दुर्ग आदि मेरे हैं, ऐसा कहना स्वजाति-विजाति- उपचरित- असद्भूत- व्यवहार
उपनय हैं
भो ज्ञानी! व्यवहारनय अभूतार्थ है, इस गुत्थी को हमारे दैनिक जीवन की चर्या में भी समझा जा सकता हैं जिस घट में घी भरा है, उसे घी का घड़ा कहा जाता है और जो घट पानी भरने के काम में लिया जाता है, उसे पानी का घट कहते हैं, जबकि घट न तो घी का है और न पानी कां घट तो मिट्टी का हैं यह कथन दो भिन्न वस्तुओं में संयोग सम्बन्ध होने के कारण उपचरित- असद्भूत- व्यवहारनय से कहा गया हैं इसी तरह से 'यह शांतिनाथ जिनालय है, यह शीतलनाथ जिनालय है'-ऐसे कथन भी उपचरित असद्भूतव्यवहारनय के अन्तर्गत आते हैं, परंतु मेरे शरीर में फोड़ा हो गया है, मुझे बहुत दुख हो रहा है, मैं विह्वल हूँ, यह अनुपचरित- असद्भूत व्यवहारनय की दृष्टि से कहा जाता हैं यदि तुम इस सब व्यवहार को
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