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(xrviii ) ऐसे सूत्र सृजित किये जिनके आधार पर इस तरह की विस्तृत व्याख्यायें हो सकीं। (1) प्रमेयकमलमार्तण्ड
आचार्य प्रभाचन्द्र ने 11वीं शती में ही परीक्षामुख पर बारह हजार श्लोक प्रमाण प्रमेयकमलमार्तण्ड नाम से बृहत् टीका लिखी है। जैन न्याय के क्षेत्र में यह टीका अत्यधिक महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। इस अकेले ग्रन्थ के माध्यम से समस्त भारतीय दर्शनों का भी शास्त्रीय ज्ञान अध्येताओं को हो जाता है। (2) प्रमेयरत्नमाला _ वि.सं. 12वीं शती में यह टीका आचार्य लघु-अनन्तवीर्य द्वारा प्रसन्न रचना शैली में लिखी गयी टीका है। टीकाकार ने स्वयं अपनी टीका को 'परीक्षामुख-पञ्जिका' कहा है। प्रत्येक समुद्देश की अन्तिम पुष्पिका में वे अपनी 'टीका' को 'परीक्षामुख लघुवृत्ति' भी कहते हैं। समस्त दर्शनों के विशिष्ट प्रमेयों का सुन्दर चित्रण इस ग्रन्थ की विशेषता है। स्वयं अनन्तवीर्य ने प्रमेयकमलमार्तण्ड को चांदनी की उपमा दी है और प्रमेयरत्नमाला को उसके सामने जुगुनू के समान बताया
प्रभेन्दुवचनोदारचन्द्रिकाप्रसरे सति।
मादृशाः क्व नु गण्यन्ते ज्योतिरिङ्गणसन्निभाः॥ (३) प्रमेयरत्नालङ्कार
यह टीका भट्टारक चारुकीर्ति ने लिखी है। इसमें भी छह परिच्छेद हैं। यह टीका प्रमेयरत्नमाला से बड़ी है। इसमें उससे अतिरिक्त विषय भी प्रतिपादित हैं। इसकी एक हस्तलिखित प्रति जैनसिद्धान्त भवन, आरा में उपलब्ध है। इसका समय विक्रम संवत् 18वीं शती है। (4) प्रमेयकण्ठिका
यह परीक्षामुख के प्रथम सूत्र पर श्री शान्तिवर्णी द्वारा लिखी गयी एक स्वतन्त्र कृति है। यह ग्रन्थ पाँच स्तबकों में विभक्त है और इसमें