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( 18 ) (९) भाग २ अनुवाद में उदाहरण वाक्य देकर नियम दिये गये हैं, साथ ही प्रत्येक पाठ के अन्त में दो-दो अभ्यास खण्ड भी दिए गये हैं।
(१०) मूलतः महाराष्ट्री प्राकृत (सामान्य प्राकृत) के नियमों को स्पष्ट किया गया है, शेष शौरसेनी आदि प्राकृत-प्रकारों के व्याकरण-सम्बन्धी नियमों तथा ऐतिहासिक विवेचन को चतुर्दश अध्याय में संक्षेप में प्रस्तुत किया है । संकलन भाग में अवान्तर प्राकृतों के संकलन भी दिए गये हैं।
(११) संकलन भाग में संकलन करते समय महाराष्ट्री, जैन महाराष्ट्री और अर्धमागधी को क्रमशः प्रमुखता दी गई है, शेष प्राकृत प्रकारों के एक-एक संकलन अंश दिए गये हैं। विषय-चयन की दृष्टि से गद्य-पद्य दोनों का समावेश करते हुए कुछ सरल, कुछ साहित्यिक, कुछ उपदेशात्मक, कुछ दार्शनिक, कुछ संभाषणात्मक आदि विभिन्न प्रकार के अंशों का चयन किया गया है।
(१२) परिशिष्ट में शब्दकोश और धातुकोश देकर अनुवाद को सहज बनाने का प्रयत्न किया गया है।
(१३) यथावसर सुबोधार्थ चार्ट और संकेताक्षरों का प्रयोग किया है।
(१४) प्रस्तावना में प्राकृत भाषा की उत्पत्ति और विकास का संक्षिप्त विवेचन करके यथाशक्य पूर्णतः लाने का प्रयत्न किया है।
विस्तारभय के. कारण तीनों भागों की पर्याप्त सामग्री को रोक दिया गमा है। आशा है, भविष्य में उसे द्वितीय भाग में या अग्रिम संस्करण में जैसे पाठकों के विचार होंगे, देने का प्रयत्न करूंगा। ___ मुझे विश्वास है कि इस पुस्तक के माध्यम से संस्कृतज्ञ एक माह में तथा हिन्दी के वेत्ता तीन माह में प्राकृत भाषा सीख सकते हैं। .
प्रमादवश हुई अशुद्धियों के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। विद्वान् पाठकों के बहुमूल्य सुझावों का समोदर करूंगा।
अन्त में मैं प्रस्तुत पुस्तक के लेखन एवं प्रकाशन में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से पहयोग करने वालों के प्रति हृदय से आभारी हूँ। सर्वप्रथम मैं इस पुस्तक के पूर्व लिखी गई उन सभी पुस्तकों एवं लेखकों का आभारी है जिनकी ज्ञानराशि का उपयोग करके प्रस्तुत पुस्तक लिखने में समर्थ हो सका।
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