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( 16 ) (ii) विभाषा-शाकारी', चाण्डाली', शाबरी, आमीरिकी और शाकी
(शाखी)। (iii) अपभ्रश--२७ प्रकार । (देखें पृ० १३४ ) (iv) पैशाची--कैकेयी, शौरसेनी और पाञ्चाली।
भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में ७ प्रकार की प्राकृतों का उल्लेख किया है" -(१) मागधी (२) अवन्तिजा (३) प्राच्या (४) शौरसेनी (५) अर्धमागधी (६) बालीका और (७) दाक्षिणात्या ( महाराष्ट्री)।
देश-भेद, काल-भेद और जाति-भेद के आधार पर प्राकृत के अवान्तर कई भेद किये जा सकते हैं। मृच्छकटिक आदि नाटकों में इनके प्रयोग देखे जा सकते हैं। साहित्य में प्रयुक्त भाषाएं महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी और पैशाची प्रमुख हैं। जैन महाराष्ट्री, जैन शौरसेन, अर्धमागधी और चूलिका पैशाची इन अवान्तर उपविभागों में भी पर्याप्त साहित्य उपनिबद्ध है । महाराष्ट्री प्राकृत को सामान्य प्राकृत के रूप में सभी वैयाकरणों (चंड को छोड़कर )ने उपस्थित किया है । व्याकरणात्मक विशेषताओं के आधार पर (अपभ्रंश के साथ) १. मागधी की एक बोली थी। इसमें अपभ्रंश की प्रवृत्तियाँ थीं। २. मागधी और शौरसेनी का मिश्रण है। ३. शबर जाति की बोली थी। इसमें मागधी का ही विकृत रूप है। ४. यह पश्चिम की बोली थी। शोरसेनी और पैशाची का मिश्रण था। यह
अपभ्रंश भाषा ही थी। ५. मागध्यवन्तिजा प्राच्या शौरसेन्यद्धमागधी।
बालीका दाक्षिणात्या च सप्तभाषा प्रकीर्तिताः ।। १७.४८. ६. महाराष्ट्री और शौरसेनी का मिश्रण । अवन्ती-उज्जैन । इसमें मुहावरों
की बहुलता है। यह शिकारी और कोतवालों की भाषा थी। ७. भरत के अनुसार यह विदूषक की भाषा थी। मार्कण्डेय के व्याकरणानुसार
प्राच्या से शोरसेनी में कोई विशेष अन्तर नहीं था। ८. महाराष्ट्री की हो एक उपभाषा है ।
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