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लोप हो गया और विभक्तियों के बोधक स्वतन्त्र शब्दों का प्रयोग होने लगा, जिससे ये भाषाएं विश्लेषणात्मक ( Analytical ) हो गई ।
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प्राकृत भाषा का विकासक्रम एवं विभाजन
द्वितीय स्तर की कथ्य भाषाओं ( साहित्य निबद्ध प्राकृतों ) को प्राकृत -साहित्य के इतिहासकार निम्न तीन कालों में विभक्त करते है '
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(१) प्रथम युग ( ई० पू० ६०० से ई० १०० ) - इसमें निम्न भाषाएँ आती हैं— (i) पालि, (ii) पैशाची एवं चूलिका पैशाची, (iii) अर्धमागधी ( जैनआगम ), (iv) अशोक शिलालेख और (v) अश्वघोष के नाटकों की प्राकृत |
(२) द्वितीय युग ( ई० १०० से ६०० ) - इसमें निम्न भाषाएँ आती हैं(i) भास एवं कालिदास के नाटकों की प्राकृतें, (ii) काव्य ( सेतुबन्ध आदि ) की प्राकृते, (iii) प्राकृत वैयाकरणों द्वारा अनुशासित प्राकृतें एवं (iv) परवर्ती जैन ग्रन्थों की प्राकृते ।
(३) तृतीय युग ( ई० ६०० से १२०० ) -- इसमें अपभ्रंश भाषाएँ आती हैं ।
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उपर्युक्त भाषाओं में से पालि और अपभ्रंश को प्राकृत से पृथक् भाषा के रूप में भी माना जाता है तथा शेष प्राकृत भाषा समुदाय को प्रमुख रूप से चार भागों में विभक्त किया जाता है-
(१) महाराष्ट्री, (२) पैशाची, (३) मागधी और (४) शौरसेनी । वररुचि ने अपने प्राकृत प्रकाश में इन्हीं चार प्राकृत प्रकारों का अनुशासन किया है । हेमचन्द्राचार्य ने चूलिका पैशाची, आर्ष ( अर्धमागधी ) और अपभ्रंश इन तीन भेदों को मिलाकर ७ प्रकार की प्राकृतों का अनुशासन किया है। प्राकृतसर्वस्वकार मार्कण्डेय ने प्रथमतः भाषा के चार भेद किए हैं और फिर उनके अवान्तर भेदों को बतलाया है
(i) भाषा -- महाराष्ट्री, शौरसेनी, प्राच्या, अवन्ती और मागधी ।
१. डा० नेमिचन्द्र शास्त्री, प्रा० भा० सा० आ० इ०, पृ० १९.
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