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आगम-ग्रंथों में .....अर्धमागधी की स्थिति
(ख) प्राचीन भाषा में कालान्तर से आगत परिवर्तनों के
कतिपय उदाहरण प्राचीन भाषा में किस प्रकार परिवर्तन आये हैं उनकी स्पष्टता कुछ प्रयोगों के आधार से की जा सकती है । (१) 'जीवित' शब्द
(अ) सब्बेसं जीवितं पियं-धम्मपद, १३० । (ब) सन्वेसिं जीवितं पियं-आचारांग, सूत्र ७८
(म. जै. वि. संस्करण) धम्मपद और आचारांग में ‘जीवित' शब्द एक समान मिल रहा है क्योंकि भगवान बुद्ध और भगवान महावीर समकालीन थे, इतना ख्याल रखना चाहिए । इस शब्द में परवर्ती काल में जो परिवर्तन आया वह शुबिंग महोदय के संस्करण से स्पष्ट होगा । उनके संस्करण में पाठ इस प्रकार है :
(स) 'सव्वेसिं जीवियं पियं'-आचा. पृ. ८.२५ । यहाँ पर 'जीवियं' शब्द पर व्याकरणकारों के ध्वनि--परिवर्तन के नियम का प्रभाव स्पष्ट तौर से नज़र आ रहा है । (२) 'क्षेत्रज्ञ' शब्द
आचारांग में ही (म. जै. वि.) क्षेत्रज्ञ शब्द के अनेक प्राकृत रूप मिलते हैं --खेत्तन्न, खेतन्न, खेदन्न, खेदण्ण, खेतण्ण और खेयण्ण ।
- क्या ये सभी रूप एक ही काल और एक ही क्षेत्र में एक साथ चले होंगे? स्पष्ट है कि इनमें (पूर्वी क्षेत्र) मागधी, (उत्तरी क्षेत्र) शौरसेनी और (पच्छिमी क्षेत्र) महाराष्ट्री--तीनों प्राकृत भाषाओं के रूप विद्यमान हैं । अन्तिम चार रूपों पर व्याकरणकारों का प्रभाव बिलकुल स्पष्ट है और वे क्रमशः परवर्ती काल में प्रविष्ट हुए हैं ।
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