Book Title: Prachin Ardhamagadhi ki Khoj me
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad

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Page 111
________________ ८८ प्राचीन अर्धमागधी की खोज में/के आर.चन्द्र ख. आचारांग के टीकाकार क्षेत्रज्ञ का अधिकतर 'खेदज्ञ' से ही अर्थ समझाते हैं.–निपुण के साथ अभ्यास, श्रम आदि अर्थ भी दिये गये हैं ( आगमो. पृ० 124)। कभी-कभी क्षेत्रज्ञ का अर्थ निपुणता भी समझाते हैं । शीलांकाचार्य (सू० 132 पर टीका ) खेदज्ञ का अर्थ इस प्रकार करते हैं-जन्तु दुःखपरिच्छेत्तभिः । वास्तव में मूल शब्द तो 'क्षेत्रज्ञ' ही था लेकिन बाद में बदलकर 'खेदज्ञ' भी बन गया । वैसे प्राकृत शब्द 'खेदण्ण' औद 'खेदन्न' कागज की प्रतों में ही अधिकतर मिलते हैं । ग. महावीर जैन विद्यालय के संस्करण में क्षेत्रज्ञ शब्द के लिए जो प्राकृत रूप (पाठ) स्वीकृत किया गया है और विभिन्न प्रतों ( ताडपत्र और कागज) से उसके जो पाठान्तर दिये गये हैं वे इस प्रकार हैंस्वीकृत पाठ पाठान्तर और प्रत-परिचय (आधारभूत प्रत एवं सूत्र सं० ) . 1. खेत्तण्ण० 32 खं. इ० चू० खेतण्ण० स, हे० 1, 2 खेयन्न, खेअन्न (अन्यत्र) 2. खेत्तण्ण-32 इ० चू० खेयन्न, खेअन्न (अन्यत्र) 3. खेत्तण्ण-32 इ० च्० खेतण्ण सं, खं, हे० 1,2 खेयन्न, खेअन्न (अन्यत्र) 4, खेत्तण्ण-23 इ० च्० खेअन्न हे० 3, ला० जै,खेतण्ण (अन्यत्र) 1. वही, पृ० 26, टि. ४, पृ. 39 टि० 10 हे० 1, 2, 3 और ला. संज्ञक प्रतिया)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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