Book Title: Prachin Ardhamagadhi ki Khoj me
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad

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Page 119
________________ प्राचीन अर्धमागधी की खोज में/के.आर.चन्द्रः अन्य संदर्भ :. किसी अन्य संदर्भ में भिक्षु द्वारा गाथापति एवं गाथापति द्वारा भिक्षु को संबोधित करने के लिए आचारांग के ही प्रथम श्रुत-स्कंध के आठवें अध्ययन में 'आउसतो' शब्द के प्रयोग मिलते हैं (आउसतो गाहावती 8. 2. 204; 8 5. 218; आउसंतो समणा 8. 3. 211)। इन प्रयोगों को देखते हुए तथा सूत्रकृतांग में सम्बोधन के लिए 'आउसो' का प्रयोग देखते हुए (वच्चघरं च आउसो खणाहि 1. 4. 2. 13 ) 'आउसं' का प्रयोग कितना उचित है, यह विचारणीय बन जाता है जब ऐसे ही प्रयोग आचारांग और सूत्रकृतांग में अनेक स्थलों पर मिलते हैं। (1) आचारांग के प्रयोग (प्रथम श्रुत-स्कंध) :-आउसंतो गाहावती 1. 8. 2. 204, आउसंतो समणा 1. 8. 3. 211 आउसो 1. 8. 2 204 । इसी प्रकार द्वितीय श्रुत स्कंध में बीसों एसे प्रयोग (2. 1. 9. 396, 399 इत्यादि) मिलते हैं (देखिए शब्द सूची)। (2) सूत्र कृतांग के प्रयोग:- आउसो 1. 3. 3. 198, अहाउसो 2 6. 837, अयमाउसो 2. 1. 649, समणाउसो 2. 1. 644, आउसंतो 27. 845, 846, 848, 851 इत्यादि । आउसो और आउसंतो के. इसमें भी बीसों प्रयोग मिलते हैं । ___ इस प्रकार के प्रयोग अन्य ग्रंथों में भी मिलते हैं । एवामेव समणाउसो ! जे अम्हं निगंथो वा......। (अ. 4, पृ 67; अ. 5, पृ 82; अ. 7, पृ 89. नायाधम्मकहाओ, एन. वी. वैद्य)। इसिभासियाई के उदाहरण- अ. 10 पृ. 23.5, ।। (शु.) . आउसो ! तेतलिपुत्ता ! एहि ता आयाणाहि, पृ. 23. 5. आउसो ! तेतलिपुत्ता ! कत्तो वयामो पृ. 23. 11. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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