Book Title: Prachin Ardhamagadhi ki Khoj me
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad

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Page 129
________________ प्राचीन अर्धमागधी की खोज में / के. आर. चन्द्र महाराष्ट्री से उसके नाम में मागधी शब्द ही उसकी प्राचीनता का बोध कराता है । १०६ ( 13 ) इस दृष्टि से जैन आगमों के प्राचीन अंशों में जो जो प्राचीन रूप ( नामिक, क्रियापदिक तथा कृदंत) मिलते हैं वे उसे पालिभाषा के समीप ले जाते हैं न कि महाराष्ट्री प्राकृत के निकट (14) मूलतः अर्धमागधी भाषा मागधी और महाराष्ट्री का मिश्रण नहीं थी यह तो परवर्ती प्रक्रिया की विकृति है । अतः चर्चा का उपर्युक्त वाक्य यदि भगवान महावीर के समय का है, उनके मुख से निकली हुई वाणी है या उनके गणधरों द्वारा उसे भाषाकीय स्वरूप दिया गया है तब तो उसका पाठ इस प्रकार होना चाहिए एस धम्मे सुद्धे नितिए सासते' समेच्च लोगं खेत्तन्ने हि पवेदिते । यदि यह वाणी भ. महावीर के मुख से प्रसृत नहीं हुई है या गणधरों की भाषा में प्रस्तुत नहीं की गयी है या ई. सन् पू . चतुर्थ शताब्दी की प्रथम वाचना का पाठ नहीं है परन्तु तीसरी और अन्तिम वाचना में पूज्य देवर्धिगणि (पाँचवी - छठी शताब्दी) के समय में इसे अन्तिम रूप दिया गया हो या उन्होंने ही श्रुत की रचना की हो तब तो हमारे लिए चर्चा का कोई प्रश्न ही नहीं बनता है और जो भी पाठ जिसको अपनाना है वह अपना सकता है । 1,2 = [तृ ब. व. की विभक्ति 'हि' के बदले 'हि' भी परवर्ती है । सासते से 'त' का लेप भी अयोग्य लगता है । इतिभासियाई जैसा प्राचीन ग्रंथाम मध्यवर्ती त से भरा पड़ा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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