Book Title: Prachin Ardhamagadhi ki Khoj me
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad

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Page 128
________________ मूल अर्धमागधी की पुनः रचना : एक प्रयत्न (7) शुबिंग महोदयने ज्ञ के लिए सर्वत्र न ही अपनाया है परन्तु त्र के स्थान पर य को स्थान देकर तथा त्त का त्याग करके उन्हो'ने अनुपयुक्त पाठ अपनाया है । वे स्वयं भी 'खेदज्ञ' शब्द से प्रभावित हुए है ऐसा लगे बिना नहीं रहता । उन्होंने नित्य के स्थान पर नितिय अपनाया है वह प्राचीन भी है और बिलकुल उचित भी है, निइय और णिइय तो बिलकुल कृत्रिम है और मात्र मध्यवर्ती त के लोप का अक्षरशः पालन किया गया हो ऐसा लगता है । (8) आश्चर्य है कि पिशल के व्याकरण में न तो नितिय (जो प्राचीन है) शब्द मिलता है और न ही णिइय, निइय । (9) प्राचीन शिलालेखों और प्राचीन प्राकृत में स्वरभक्ति का प्रचलन है, जैसे-क्य = किय, त्य = तिय, व्य = विय, इत्यादि और ऐसे संयुक्त व्यंजनों में समीकरण बाद में आया है । (10) समेच्च के बदले में समिच्च अर्थात् ए के स्थान पर इ का प्रयोग (संयुक्त व्यजनों के पहले) भी न तो सर्वत्र मिलेगा ओर न ही प्राचीनता का लक्षण है । (11) क = ग के प्रयोगों से अर्धमागधी साहित्य भरा पड़ा है । क का ग भी पूर्वी क्षेत्र का (अशोक के शिलालेख) लक्षण है । क का लोप महाराष्ट्री का सामान्य लक्षण है और यह लोप की प्रवृत्ति काफी परवर्ती है । पवेदित में से द और त का लोप भी परवर्ती प्राकृत का लक्षण है । शौरसेनी और मागधी में तो द प्रायः यथावत् ही रहता है और पालि तथा पैशाची में त भी । (12) अर्धमागधी का सम्बन्ध मागधी से अधिक है न कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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