Book Title: Prachin Ardhamagadhi ki Khoj me
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad

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Page 120
________________ आचारांग के उपोद्घात के वाक्य का पाठ पालि त्रिपिटक साहित्य में भी सम्बोधन के लिए 'आवुस'3 शब्द का प्रयोग मिलता है । इसमें 'य' का 'व' हुआ है जैसे 'आयुध आवुध' । आवुसो रूप ब. व. आयुस्मन्तो का संकुचित रूप माना गया है । नियमित रूप आयुस्मन्त् माना गया है । अब 'सुर्य, 'भगवया' और 'अक्खाय' शब्दों में आनेवाले वर्ण विकारों पर विचार किया जाय । प्रथम और तृतीय शब्द भूतकृदन्त हैं तथा द्वितीय शब्द तृतीया एकवचन का रूप है । आचारांग में ही प्राप्त होनेवाले इसी प्रकार के प्रयोगों को देखते हुए इनमें जो ध्वनि - विकार आ गया है वह उपयुक्त नहीं लगता । आचारांग के (म. जै. वि.) प्रथम श्रुत-स्कंध के कुछ प्रयोग इस प्रकार हैं :1 अहासुतं वदिस्सामि 1. 9. 1. 254 2. (क) भगवता परिणा पवेदिता 1. 1. 1.7; 2. 13, 3. 24; 4. 35, 5. 43; 6. 51; 7. 58 (ख) भगवता पवेदित 1. 2 5. 89, 6. 3. 197; 8. 4. 214, 8. 5. 217; 8. 5. 219; 8. 6. 221, 2233B (ग) माहणेण मतीमता 1. 9. 1. 276; 9 2. 292, 9.3. 306; 9. 4.323. 3 (क) एस मग्गो आरिएहि पवेदिते 1. 2. 2. 74 (ख) मुणिणा हु एतं पवेदितं 1. 5. 4. 164 (ग) जं जिणेहिं पवेदित 1. 5. 1. 168 (घ) पवेदितं माहणेणं 1. 8. 1. 202 . (ड) बुद्धेहिं एवं पवेदितं 1. 8. 2. 206 3. द्रष्टव्य : . पाले त्रिपिटक कन्कोडेन्स, पृ॰ 345; मूलाराधना की विजयोदयाटीका में पाठ इस प्रकार है-'सुद में आउस्सन्तो ! भगवदा एवमरखाद" .. ....: भाचा, प्रस्तावना पृ. 36, म. जे. वि, 1977. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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