Book Title: Prachin Ardhamagadhi ki Khoj me
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad

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Page 123
________________ ८. म्ल अर्धमागधी की पुनः रचना : एक प्रयत्न* जैन अर्धमागधी आगम साहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थ आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध के चौथे अध्ययन के प्रथम उद्देशक में अहिंसा धर्म के विषय में भगवान महावीर का उपदेश इस प्रकार है "सव्वे पाणा सव्वे भूता सव्वे जीवा सव्वे सत्ता न हंतव्वा,. न अज्जावेतवा, न परिघेत्तव्वा, न परितावेयव्वा, न उद्दवेयव्वा ।" अर्थात् किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए और न ही उसे किसी भी प्रकार से पीड़ित करना चाहिए । “यही शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म है जो आत्मज्ञों के द्वारा उपदिष्ट है ।" भगवान महावीर की इसी वाणी को अर्धमागधी भाषा के विभिन्न संस्करणों में निम्न प्रकार से संपादित किया गया है (i) शुबिंग - (1.4.1) एस धम्मे सुद्धे नितिए सासए समेच्च लोगं खेयन्नेहिं पवेइए । (ii) आगमोदय - (1.4 1.126) एस धम्मे सुद्धे निइए समिच्च लोयं खेयण्णेहिं पवेइए । (iii) जैन विश्व भारती - (1.41.2) एस धम्मे सुद्धे णिइए सासए समिच्च लोयं खेयण्णेहिं पवेइए । (iv) म. जै. विद्यालय - (1.4.1 132) एस धम्मे सुद्धे णितिए. सासए समेच्च लोयं खेतण्णेहिं पवेदिते । ___ इन चारों पाठों में जो शब्द प्रयुक्त हैं उनमें से निम्न शब्दरूप एक समान नहीं हैं... * 'वामय' जिल्द 3, गुज. साहित्य अकादमी, गांधीनगर, 1990 से साभार रतुत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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