Book Title: Prachin Ardhamagadhi ki Khoj me
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad

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Page 125
________________ १.२ प्राचीन अधमागधी की खोज में/के.आर चन्द्रः (6) किसी ने त्र का त किया तो किसी ने त्र का य किया अथवा (7) किसी ने द (खेदज्ञ से) का त किया तो किसी ने द का य कर दिया है। (8) इस प्रकार के परिवर्तनों से ऐसा मालूम होता है कि हरेक संपादक की अर्धमागधी भाषा के विषय में अलग अलग धारणा बनी हुई है । (9) इसका मुख्य कारण यही है कि अर्धमागधी भाषा का व्याकरण किसी भी व्याकरणकार से हमें स्पष्टतः प्राप्त ही नहीं हुआ है । इन सभी परिवर्तनों पर विचार किया जाय और उनकी समीक्षा तथा आलोचना की जाय तो अवश्य कुछ न कुछ समझ में आएगा कि इस प्रकार की विभिन्नता कैसे आ गयी । शब्दों में प्राप्त ध्वनिगत परिवर्तनों से तो ऐसा प्रतीत होता है कि - (1) 'पवेदित' शब्द में किसी को पालि भाषा का आभास होता होगा इसलिए पवेदिअ ही स्वीकारना उचित लगा हो । (2) 'खेतण्ण' और 'नितिय' में 'त' श्रुति की शंका हो गई हो इसलिए 'खेयण्ण' और 'निइअ' ही स्वीकार किया गया हो । (3) प्रायः लोप के नियम से प्रेरित होकर त और द का लोप करना उचित मानकर पवेइअ को स्वीकार किया हो । (4) ज्ञ का न्न अयोग्य समझकर व्याकरण के नियम से प्रणा कर दिया गया हो । इन स्वीकृत पाठों में(1) पालि भी है - पवेदित, (2) पालि और अर्धमागधी भी है – समेच्च, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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