Book Title: Prachin Ardhamagadhi ki Khoj me
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad

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Page 121
________________ प्राचीन अर्धमागधी की खोज में/के.आर.चन्द्र । (च) णायपुत्तेण साहिते 1. 8. 8 240 ... (छ) चरियासणाई ............. जाओ बूइताओ । आइक्खह . ताई............॥ 1. 9. 2. 277 इस प्रकार 'सुत, पवेदित, साहित, बूइत और भगवता, मतीमता आदि कितने ही प्रयोग स्वयं आचा. प्रथम श्रुत स्कंध में ही प्राप्त हो रहे हैं । इस दृष्टि से उपोद्घात का वाक्य इस प्रकार होना चाहिए . था .......... । - 'सुतं मे आउसंतेण भगवता एवमक्खातं' इसी संदर्भ में 'इसिभासियाई' के प्रयोगों पर ध्यान दीजिए । इसिभासियाई ग्रंथ शुबिंग महोदय द्वारा ही संपादित किया गया है । उसमें हरेक अध्ययन के प्रारंभ में ऋषि के नाम के साथ "...... अरहता इसिणा बुहतं" वाक्यांश का प्रयोग मिलता है । 43 बार 'अरहता' का प्रयोग है और 37 वार 'बुइतं' और 7 बार 'बुइयं' का प्रयोग मिलता है । तुलना कीजिए आचारांग के | 'भगवया........... अक्खाय' की इसिभासियाई के . 'अरहता......बुइतं' के साथ । मूर्धन्य विद्वानों के द्वारा इसिभासियाइ उतना ही पुराना माना गया है. जितना आगमों के चार ग्रन्थ - आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन और दशवैकालिक । तब फिर भाषा में इतना अन्तर क्यों ? इस दृष्टि से तो आचारांग का सही और प्राचीन पाठ होगा ___- 'सुतं मे आउसंतेण भगवता एवमक्खातं' और इसी पाठ की पुष्टि सूत्रकृतांग के निम्न पाठां से हो रही है। [1] सुयं मे आउसंतेण भगवता एवमक्खायं 2. 1. 638 . [1] सुतं मे आउसंतेणं भगवता एवमक्खातं 2. 2. 694 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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