Book Title: Prachin Ardhamagadhi ki Khoj me
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad

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Page 115
________________ प्राचीन अर्धमागधी की खोज में के.आर.चन्द्र प्राकृत में होने वाले ध्वनि-परिवर्तनों के कारण जब यह शब्द 'खेतन्न' से 'खेदन्न' या 'खेदण्ण' (त = द, न = ण) की अवस्था से गुजरा तब ध्वनि-परिवर्तन-सम्बन्धी नियम तथा मूल परम्परा की स्मृति के ओझल हो जाने से उसको मूलतः खेद' समझ कर उसका उस रूप में अर्थ किया जाने लगा । जिस प्रकार 'मात्र' शब्द का 'मत्त'='मात='माय' हो गया: पात्र का 'पाय', 'आत्म' का आत्तआत-आय' हो गया उसी प्रकार 'खेत्त'का 'खेय' हुआ है । अतः इस शब्द का सम्बन्ध खेदज्ञ के साथ जोड़ने की परम्परा परवर्ती है और उचित भी प्रतीत नहीं होती । पिशल ने तो (176) मात्र 'खेयन्न' शब्द ही दिया है और उसका स स्कृत रूपान्तर भी 'खेदज्ञ' ही दिया है जबकि उसी स्थल पर 'मायन्न' का रूपान्तर 'मात्रज्ञ' (संस्कृत) दिया है । इस सम्पूर्ण अन्वेषण और विश्लेषण का सार यही है कि अर्धमागधी भाषा में मूलतः खेत्तन्न शब्द ही था जो 'क्षेत्रज्ञ' अर्थात् आत्मज्ञ के साथ सम्बन्धित था, न कि 'खेदज्ञ' के साथ जो परवर्ती काल की देन है । बदलती हुई प्राकृत भाषा की ध्वनि-परिवर्तन की प्रवृति के प्रभाव में आकर खेत्तन्न शब्द ने कालानुक्रम से अनेक रंग बदले या अनेक रूप धारण किये और वे सभी रूपान्तर आचारांग के अलग अलग संस्करणो में हमें आज भी मिल रहे हैं । कहने की आवश्यकता नहीं कि आगा के नये संस्करण में 'खेत्तन्न' पाठ ही उचित, प्राचीन और यथायोग्य माना जाना चाहिए। इस प्रकार काल और क्षेत्र की दृष्टि से शब्द के अनेक रूपान्तर हुए और वे अलग अलग प्रतियों में और उनमें भी अलग-अलग रूप में ___ 1. संस्कृत और पालि कोशों में 'खेदज्ञ' जैसा कोई शब्द नहीं मिलता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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