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क्षेत्रज्ञ शब्द का अर्धमागधी रूप .
(4) खेदन्न-मगधदेश (पूर्व) से उत्तर-पश्चिम की ओर प्रयाण (धर्म का प्रसार) करने पर (मथुरा-शूरसेन प्रदेश में) त कार का द. कार हो गया और खेतन्न शब्द खेदन्न में बदल गया । जैन आगमो की द्वितीय वाचना का स्थल मथुरा था और शौरसेनी में त का द होता है।
(5) खेयण्ण--पुनः पश्चिमी प्रदेश (गुजरात-सौराष्ट्र) की ओर प्रस्थान करने पर खेदन्न शब्द का परिवर्तन खेयण्ण में हो गया (मध्य-वर्ती अल्पप्राण का लोप, य श्रुति और तालव्य न का मूर्धन्य ण में परिवर्तन) । जैन आगमों की अन्तिम वाचना का स्थल वलभी (गुजरात) था।
इस तरह मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजन का लोप (और य श्रुति), तथा न का ण में परिवर्तन परवर्ती काल की और विशेषतः इसी क्षेत्र (पश्चिमी) की प्रवृत्तियाँ मानी गयी हैं जो काल और क्षेत्र की दृष्टि से (शिलालेखों के प्रमाणों पर आधारित) बिलकुल उपयुक्त हैं । ।
इस प्रकार प्राचीन प्राकृत शब्द 'खेत्तन्न' (पूर्वी भारत में-मगध देश का प्राचीन रूप) परवर्ती काल के प्रभाव में आकर (पश्चिम भारत में) भले ही 'खेयण्ण' में बदल गया हो और परवर्ती काल की प्रतों में 'खेयण्ण' पाठ अधिकतर मिलता हो तब भी मूल और प्राचीन शब्द 'खेत्तन्न' ही है जो जैन आगम ग्रन्थों में प्रयुक्त होना चाहिए था ।। इस दृष्टि से शुबिंग महोदय द्वारा अपनाया गया 'खेयन्न' शब्दपाठ भी उचित नहीं ठहरता और न ही अन्य सम्पादकों का 'खेयण्ण' शब्द-पाठ । चूर्णि के पाठों में त्त के स्थान पर क्वचित् ही य मिलता है जो विशेष ध्यान देने योग्य मुद्दा है । 1. मुलग्रंथ की प्रतियों में और ची में ऐसे पाठान्तर भी मिल रहे हैं तब उन
प्राचीन पाठों को प्राथमिकता क्यों नहीं दी जानी चाहिए ।
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