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क्षेत्रज्ञ शब्द का अर्धमागधी रूप
तीन स्तरों में उपलब्ध हो रहे हैं । इन सबका कारण है विविध काल में स्थानिक प्रचलन (उपयोग) की भाषा का प्रभाव । यदि यह शब्द भगवान् महावीर के मुख से निकला हो अथवा उनके गणधरों ने इसे भाषाकीय रूप दिया हो अथवा पाटलिपुत्र की प्रथम वाचना (जैन आगमों की) का यह पाठ हो तब तो पूर्वी क्षेत्र के शिलालेखीय प्रमाणों के अनुसार 'खेत्तन्न' शब्द ही मौलिक एवं उपयुक्त माना जाना चाहिए । अगर यह मान्य नहीं हो तो मथुरा की दूसरी वाचना का शब्द (शौरसेनी रूप) खेदन्न या खेदण्ण ही उपयुक्त हो सकता है । यदि यह भी मान्य नहीं हो तो तीसरी वाचना अर्थात् वलभी का शब्द खेयण्ण ही माना जाना चाहिए । इस तरह तो फलित यही होगा कि पू० देवर्धिगणि ने आगमों की रचना की है और उनकी भाषा में मागधी प्राकृत के स्थान पर महाराष्ट्री प्राकृत का ही प्रभुत्व है । परन्तु प्रश्न यह है कि एक काल की किसी भी रचना में पूर्ववर्ती काल के अलग अलग वर्तनी वाले शब्द कैसे आ सकते हैं । इसका समाधान यही हो सकता है कि यदि प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना प्राचीन है और वह पूर्वी प्रदेश (मगध देश) की है तब तो मात्र ‘खेत्तन्न' शब्द-रूप ही उपयुक्त माना जाना चाहिए और उसी शब्द का प्रयोग आचारांग में सर्वत्र किया जाना चाहिए । भाषा विज्ञान के अनुसार और ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से यही निर्णय उपयुक्त ठहरता है । योगानुयोग कैसा प्रमाण मिल रहा है कि सूत्रकृतांग (म. जै. वि.) के द्वितीय श्रुत-स्कंध में 'अखेत्तण्ण' (642), 'खेतन्न' (680) और 'अखेत्तन्न' (641) मुद्रित पाठ मिल रहे हैं । क्या अन्तिम पाठ 'खेत्तन्न' शब्द की ही पुष्टि नहीं करता है ?
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