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प्राचीन अधमागधी की खोज में/के.आर.चन्द्रः
(1) शुबिंग महोदय की अपनी एक विशेषता रही है कि जिन पाठान्तरों को वे अपने सिद्धान्त के अनुकूल नहीं मानते हैं एसे पाठान्तरों का वे उल्लेख नहीं करते हैं। अत: उनके सामने कौन-कौन से
और भी पाठान्तर रहे होंगे उनके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता जब तक उनके द्वारा उपयोग में लायी गयी सामग्री का पुनरावलोकन नहीं किया जाय । उन्होंने मात्र एक ही पाठान्तर खेत्तन्न' दिया है और उसे नहीं अपनाकर 'खेयन्न' को ही सब जगह अपनाया है । 'ज्ञ' के. लिए 'न' को और 'त्र' के लिए 'त्त' या 'त' के बदले में 'य' को स्थान दिया है । संस्कृत रूपान्तरों के रूप में क्षेत्रज्ञ और खेदज्ञ दोनों शब्दों का उल्लेख उन्होंने टिप्पणियों में किया हैं । च. 'क्षेत्रज्ञ' शब्द के ध्वनि सम्बन्धी अनेक प्राकृत रूपान्तरों को ऐति
हासिक विकास की दृष्टि से निम्न प्रकार से समझाया जा सकता
क्षेत्रज्ञ = खेत्ता -खेत्तन्न-खेतन्न-खेदन्न (खेदण्ण)-खेयन्न-खेयण्ण ।
(1) खेत्ता -पालि, मागधी और पैशाची (की अवस्था) का शब्द (भाषा विशेष की दृष्टि से)।
प्रदेश की दृष्टि से पश्चिम, उत्तर-पश्चिम और दक्षिण में प्रयोग (अशोककालीन शिलालेखों के अनुसार) ।
(2) खेत्तन्न-पूर्वी प्रदेश की लाक्षणिकता (अशोक के शिलालेखों के अनुसार) । जैन आगमों की प्रथम वाचना का स्थल पूर्व भारत में पाटलिपुत्र ही था यह एक महत्त्व का मुद्दा है ।
(3) खेतन-मूल खेत्तन्न शब्द खेतन्न में बदल गया क्योंकि दीर्घ मात्रा के बाद आनेवाले संयुक्त व्यंजनों में से एक का वैकल्पिक लोप प्राकृत भाषा को मान्य है ।।
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