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अर्धमागधी में प्राचीन भाषाकीय तत्व
तेसि पि वयं लज्जामो (आचा. 1.8.8.203)।
पिशल (419) महोदय ने 'वयं' रूप के आचारांग से 7 प्रयोग, सूत्रकृतांग से 6 प्रयोग, उत्तराध्ययन से 3 प्रयोग तथा भगवतीसूत्र
और दशवैकालिक से भी ऐसे प्रयोगों का उल्लेख किया है। (छ) व्यंजनांत शब्दों के तृतीया ए. व. के कुछ प्राचीन प्रयोग
पिशल महोदय ने (364,396,407,411,413) तृतीया ए. व. के अनेक प्राचीन प्रयोगों का अर्धमागधी से उल्लेख किया है । वे इस प्रकार हैं :- वाया = वाचा (उत्तरा; दशव.) कायगिरा (दशवै.)। 'वाया' का प्रयोग सूत्रकृतांग में भी मिलता है (1 4.1.24) । अन्य उदाहरण :
विउसा, तेयसा, चेयसा, जससा, सिरसा, (कायसा, जोगसा, णियमसा, पयोगसा, बलसा, भयसा आदि भी, और मतिमया, महया, जाणया इत्यादि । ये प्रयोग आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, स्थानांग, भगवतीसूत्र और औपपातिक सूत्र से उद्धृत किये गये हैं । इनमें सूत्रकृतांग का प्रयोग 'आयसा' (आत्मना 1.4.1.6 आल्सडर्फ)
और आतसा (म. जै. वि.) भी जोड़ा जा सकता है । इसिभासियाई से उदाहरणः-चक्खुसा 35.23, तेजसा 37, पृ. 63.24 इत्यादि ।
(ज) तृतीया बहुवचन की विभक्ति-भि वाले रूप
अर्धमागधी में इस विभक्ति वाले कुछ अवशिष्ट प्रयोग इस प्रकार मिलते हैं:
थीमि (स्त्रीभिः), आचा. 1.2.4.84, पसुभि (पशुभिः), उत्तराध्ययन 9.49, संझमेभि के लिए देखिए इसिभासियाई, शुबिंग, पृ. 128; कडेभि ( सत्रकृ. चूर्णी के प्रयोग ) के लिए देखिए पीछे पृ. 30, ( पाद--टिप्पण नं 1)।
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