Book Title: Prachin Ardhamagadhi ki Khoj me
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad

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Page 66
________________ अर्धमागधी में प्राचीन भाषाकीय तत्त्व - (ii) जन्तवो, साहवो (प्र. ब. व; पिशल, 380) (iii) दुम्मणा, सुमणा (प्र. ए. व; पिशल, 408) (iv) अतिविजं (अतिद्विान् ) आचा. सूत्र, 112, 115, सूत्रकृ. पिशल, 299) (v) तमसि (स. ए. व. पिशल, 408) (vi) णिपतन्ति (इसिभा. 10 पृ. 23 9); जबकि चालू रूप होगा णि(नि)वडंति, वैसे आचारांग में णिवर्तिसु रूप (सूत्र 295,297) मिलता है। (vii) विधीयते (इसिभा. 22.14) (viii) चित् (इसिभा. 22.1) (ix) दित्ततेजस (द्वि. ए. व., इसिभा. 39 1) (ण) पालि के समान स्त्री, ए. व. की विभक्तियाँ – 'य' और __- 'या' और अशोक के शिलालेखों के समान – 'ये विभक्ति स्त्रीलिंगी एकवचन की विभक्तियों 'य' और 'या' का प्राकृत व्याकरणकारों ने उल्लेख नहीं किया है अतः प्राचीन साहित्य में इनका प्रयोग यदि होगा भी तो ऐसी 'विमक्तियाँ परवर्तीकाल में स्वतः निकल गयी होगी । वैसे ये विभक्तियाँ प्राचीन हैं और अशोक के शिलालेखों में तथा पालि में मिलती हैं । अर्धमागधी में ऐसी विभक्तियाँ हो ही नहीं सकती ऐसा कहना उपयुक्त नहीं जान पड़ता क्योंकि 1. इनके स्थान पर 'अ,' 'आ,' और 'इ' विभक्तियों का व्याकरणकारोंने उल्लेख किया हैं । वास्तव में ये विभक्तियाँ 'य' और 'या' से ही विकसित हुई हैं । प्राकृत व्याकरण लिखे गये तब तक-'य'-और-'या'-ध्वनियों -'अ' - 'आ' में ' बदल गयी होगी, अतः व्याकरणकारों ने उनका उल्लेख नहीं किया हैं । इसका नतीजा यह हुआ कि प्राचीन साहित्य में 'य' और 'या' के जो भी प्रयोग होंगे वे सब –'अ' और -'आ' में बदल दिये गये होंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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