Book Title: Prachin Ardhamagadhi ki Khoj me
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad

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Page 83
________________ प्राचीन अर्धमागधी की खोज में/के.आर चन्द्र का है और अर्धमागधी साहित्य की रचना का संबंध निशंक रूप से पूर्वी क्षेत्र यानि मगध देश के साथ जुड़ता है । ज. क = ग अर्धमागधी भाषा में मध्यवर्ती क का ग में परिवर्तन अधिक प्रमाण में मिलता है और मध्यवर्ती ग को अधिक प्रमाण में यथावत् रखा जाता है । इस भाषा के प्रभाव से ही जैन शौरसेनी और जैन महाराष्ट्री में भी यह प्रवृत्ति चालू रही होगी (पिशल-202) । अन्य प्राकृतों में तो कभी कभी ही क = ग मिलता है । अर्धमागधी से उदाहरण : लोग, असोग, आगास, एगमेग, जमगसमग, कुलगर, सागपागाए, सिलागगामी, अप्पग, फलग, इत्यादि । मेहेण्डो के अनुसार (पृ, 271 ) मध्यवर्ती क को ग में बदलने की प्रवृत्ति पूर्वी क्षेत्र की है और वह क्रमशः मध्यक्षेत्र, दक्षिण और पश्चिम में फैलती है । अशोक के उदाहरण : - 'लोग' (लोक) जौगड पृथक् लेख, जबकि 'लोक' अन्य शिलालेखों में । पू. हेमचन्द्राचार्य भी अपने व्याकरण में मध्यवर्ती क के ग में बदलने के कितने ही उदाहरण देते हैं जो वास्तव में अर्धमागधी की विशेषता का ही अप्रस्तुत रूप में उल्लेख जान पड़ता है । सूत्र नं. 8.1.177 जो मध्यवर्ती व्यंजनों के लोप का सूत्र है उसकी वृत्ति में दिये गये उदाहरण इस प्रकार हैं - इत्येव कस्य गत्वम् ; उदाहरण – लोग, एगो, सावगो । अर्धमागधी पूर्वीक्षेत्र की भाषा होने के पक्ष में यह एक और प्रमाण प्रस्तुत है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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