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प्राचीन अर्धमागधी की खोज में/के.आर.चन्द्र हेट्ठात् , हेट्ठा ( देखिए पिशल-107) बहवः = बहवे (आचा. 1.9 3.295,297,302, सूत्रकृ., उत्तरा., उवासगदसाओ, नायाधम्म., इत्यादि-पिशल-380) नामतः = नामते ( जहा णामते अगणिकाए सिया, इसिभासियाई
22, पृ. 43.5; से जहा नामते, इसिभा. 31, पृ. 69.20). (ऊ) नः = ने, णे ( = अस्माकम् ) परिदेवमाणा मा णे चयाहि इति
ते वदंति-आचा. 1.6 1.182; ( देखिए पिशल - 419) .. शब्दरूप के अन्तिम-अः को -ओ के बदले -ए में बदलने
की प्रवृत्ति खास तौर से पूर्वी भारत की रही है जो अशोक के शिलालेखों से स्पष्ट है । अकारान्त शब्द के पु. प्र. ए. व. की विभक्तिवाले रूपों के सिवाय अन्य रूपों में भी ऐसा परिवर्तन. मिलता है । उदाहरणार्थ :
लाजिने (राज्ञः) धौली, जोगड, कालसी; अतने (अत्तने = आत्मनः ) जोगड पृथक् शिलालेख; धौली पृथक् शिलालेख; पियदसिने ( प्रियदर्शिनः ) धौली, जौगड, कालसी ।
जबकि गिरनार, शाहबाजगढी में राजो, गिरनार में राजानो और प्रियदसिनो अर्थात् शब्द के अन्तिम अः के लिए ओ का प्रयोग मिलता है।
इससे इतना तो स्पष्ट है कि अः = -ए वाले प्रयोग अर्धमागधी को पूर्व भारत की भाषा से ही विरासत में मिले हैं और अर्धमागधी 'साहित्य का सृजन पूर्वी भारत मे होने का यह एक प्रबल प्रमाण है। ड. अर्धमागधी में अकस्मात् शब्द का प्रयोग ..
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