Book Title: Prachin Ardhamagadhi ki Khoj me
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad

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Page 93
________________ प्राचीन अर्धमागधी की खोज में/के.आर.चन्द्र लिए ऐसा नहीं किया क्योंकि उस साहित्य में से प्राचीनता-लक्षी विशेषताओं को अलग करने में बड़ी कठिनाई उनके सामने रही हो । इस तरह का रुख अपनाने के कारण ही पं. श्री बेचरभाई दोशी अपने 'प्राकृत व्याकरण' में अर्धमागधी को कोई एक अलग भाषा मानने को तैयार ही नहीं हुए । हालॉ कि इसकी आलोचना श्री हरगोविन्ददास सेठ ने की है और पिशल ने तो अर्धमागधी को अलग भाषा का दर्जा दिया ही है । कहने की आवश्यकता नहीं कि भरतमुनि ने अपने नाटयशास्त्र में सात भाषाओं के साथ अर्धमागधी भाषा को भी एक कीर्ति-प्राप्त स्वतंत्र भाषा के रूप में गिनाया है ।। पू. हेमचन्द्राचार्य अपने व्याकरण की प्रशस्ति में अलग से एक नया व्याकरण लिखने का कारण बतलाते हुए कहते हैं कि वे निरवम (न्यूनता रहित) और विधिवत् व्याकरण बना रहे हैं । अर्धमागधी के विषय में क्या उनका यह विधान लागू होता है ? 'बहुलम्' और 'सर्वे विधयो विकल्प्यन्ते' कह देने से आर्ष भाषा को कितनी बड़ी स्वतंत्रता मिल गयी और व्याकरणकार भी सभी बन्धनों से मुक्त हो गये हो एसा ही प्रतीत होता है । इस परिस्थिति के होते हुए भी अर्धमागधी की अपनी लाक्षणिकताओं के विषय में क्या एक स्वतंत्र व्याकरण का विधान किया जा सकता था इसी मुद्दे पर यहाँ पर विचार किया जा रहा है । 3. पाइय-सद्द-महगवो, 1963, उपोद्घात, पृ. 35. 4 पिशल, 16-17. 5. ......सप्तभाषाः प्रकीर्तिताः-भ. ना. शा., 17.47. Jain Education International For Private & Personal Use Only. .. www.jainelibrary.org

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