Book Title: Prachin Ardhamagadhi ki Khoj me
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 75
________________ प्राचीन अर्धमागधी की खोज में / के. आर. चन्द्र ऊपर दर्शाये गये प्राचीन प्रयोग अर्धमागधी की प्राचीनता सिद्ध करते हैं और कभी कभी वह पालि भाषा के समान हो ऐसी प्रतीति कराते हैं । मूलतः अर्धमागधी साहित्य का सृजन ई. स. की कुछ ( चतुर्थ शताब्दी ई. स. पूर्व ) शताब्दियों पहले हुआ था | अतः पालि के समान एवं अन्य प्रकार के प्राचीन भाषाकीय प्रयोग इस साहित्य में मिल रहे हैं । यह भाषा महाराष्ट्री और शौरसेनी प्राकृतों से निश्चयतः पूर्वकालीन है और शब्दों की वर्तनी में व्यंजन संबंधी जो ध्वनि - परिवर्तन ( मध्यवर्ती व्यंजनों का लोप इत्यादि ) मिलता है वह सब कालान्तर में प्रविष्ट हुआ है ऐसा मानने में कोई शंका नहीं रह जाती है | 2 ५२ 1 पाटलिपुत्र की प्रथम वाचना का यह समय है जो ई. स. पूर्व चौथी शताब्दी का दूसरा दशक माना जाता है । देखिए जैन साहित्य का बहद् इतिहास, भाग - 1, प्रस्तावना, पृ 51 (1966 A. D), वाराणसी. - 2. आगम दिवाकर पू. मुनि श्री पुण्यविजयजी का स्पष्ट मन्तव्य रहा है कि मध्यवर्ती अल्पप्राण का प्रायः लोप और महाप्राण का प्रायः ह व्यंजनों में बदलना इन नियमों को अर्धमागधी के प्राचीन ग्रंथों में इतना अधिक स्थान प्राप्त नहीं था । इसका उल्लेख प्रारंभ के अध्याय में ही कर दिया गया है । पं. श्री बेचरदास जीवराज दोषी का भी यही मत रहा है कि प्राचीन अर्धमागी भाषा व्यंजन-प्रधान थी परन्तु कालानुक्रम से उसमें से ( मध्यवर्ती) व्यंजनों का लोप हो (या कर दिया गया होगा । देखिए- प्राकृत मार्गोपदेशिका, g. 29, atat arafa (1947). Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136