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३. अर्धमागधी आगम-ग्रन्थों की प्राचीनता और
उनकी रचना का स्थल . जैन आगम-ग्रन्थों की अर्धमागधी भाषा का स्वरूप एक समान नहीं है यह सभी विद्वान जानते हैं और यह भी सर्वविदित है कि काल की गति और स्थलान्तर के साथ मूल अर्धमागधी भाषा में परिवर्तन होता गया है । ऐसी स्थिति होते हुए भी प्राचीन आगमग्रन्थों में अमी भी ऐसे भाषाकीय प्रमाण मिलते हैं जिनसे यह निस्सन्देह निश्चित किया जा सकता है कि अर्धमागधी आगम-ग्रन्थों की. रचना मूलत: पूर्वी भारत में हुई थी और उनकी भाषा में अशोक कालीन भाषा के कितने ही तत्त्व अभी मी मिल रहे हैं जो किसी न किसी प्रकार अपरिवर्तित रूप में बच गये हैं । .. (1) अर्धमागधी भाषा में अशोककालीन भाषा के लक्षण क. यथा के लिए अहा और यावत् के लिए आव के प्रयोग
सामान्यत: प्राकृत में प्रारंभिक य - का ज - होता है परंतु अर्धमागधी भाषा में यथा और यावत् के लिए अहा और आव वाले प्रयोग अनेकबार मिलते हैं ।
आहत्तहियं (याथातथ्यम् ) या आहात्तहीयं ( * याथातथीयम् ) ..- सूत्रकृतांग के 13 वें अध्ययन का यह शीर्षक है । यदि यही शीर्षक सामान्य प्राकृत में होता तो इस प्रकार होता – 'जहातच्छं' । ( देखो - पिशल - 335)।
आचारांग से उदाहरण : अहासुतं (यथाश्रुतम् ) 1.9 1.254 __ अर्धमागधी आगमग्रन्थों में ऐसे प्रयोग अनेक बार मिलते हैं । पिशल महादयने अपने प्राकृत व्याकरण में बीसों ऐसे उदाहरण
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