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अर्धमागधी आगम-ग्रन्थों की प्राचीनता और उनकी रचना का स्थल ख. 'मति' शब्द के लिए 'मुति' का प्रयोग (i) आचारांग में एक प्रयोग मिलता है-सहसम्मुइयाए
(से जं पुण जाणेज्जा सहसम्मुइयाए...। आचा. 1.1.1.2)। वृत्ति में इसके लिए जो पाठान्तर मिलते हैं वे इस प्रकार हैंसहसम्मुइए, सहसम्मइए । आचारांग की नियुक्ति (गाथा नं. 65,67)
और उत्तराध्ययन में (28.17) सहसम्मुइया (तृ.ए.व.) पाठ मिलता है। अर्थात् 'सम्मुई' मूल शब्द है जो 'सम्मति' के लिए प्रयुक्त है । (ii) पालि सुत्तनिपात में भी इसी तरह मुत, मुति और सम्मुति
शब्द मिलते हैंदिढ सुतं मुतं-43.3,51 17, सम्मुति 51.10,
मुतिया (तृ.ए.क.) 47.12 (iii) अशोक के शिलालेखों में भी इसी प्रकार का प्रयोग
मिलता हैवेदनियमुते = वेदनीयमतः, गुलुमुते = गुरुमतः ( कालसी लेख नं. 13 ), मुखमुते = मुख्यमतः ( शाहबाजगढी और मानसेहरा लेख नं. 13) और मुते =
मतः (कालसी लेख नं. 6)। . इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि लोकभाषा में मतः के लिए मुते का प्रचलन था अतः पालि और प्राचीन प्राकृत भाषा अर्थात अर्धमागधी में भी यह प्रयोग चल पड़ा ।। ग. चतुर्थी एकवचन की विभक्ति-आये = – आए
अर्धमागधी भाषा में अकारान्त शब्दों के लिए चतुर्थी एकवचन की-आए विभक्ति बहुप्रचलित है । जैसे : तं से अहिताए (आचा.
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