Book Title: Prachin Ardhamagadhi ki Khoj me
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad

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Page 74
________________ अर्धमागधी में प्राचीन भाषाकीय तत्त्व (ऊ) पाउणेज्जा ( आचा. 2.473) (ए) पाउणित्तए (आचा. 2.490) (4) कृ धातु के प्राचीन रूप (i) ( अ । कुरुते ( इसिभासियाई 29.17 ) ( * कुर्वते-कर्तृ प्रयोग ) पिशल के व्याकरण में यह रूप नहीं मिलता है । पालि सुत्तनिपात में ऐसे प्रयोग मिलते हैं : 43.1,4,56; 49.6 इत्यादि ( देखो गाइगर-149 ) । (आ) कज्जते, कज्जति, कजंति कज्जते 'इसिभासियाई 34.3) = (*कर्यते : कर्मणि प्रयोग)। (इ) कज्जति = आचा. 67, 73 और सूत्रकृ. 747 (म.ज.वि.)। पिशल (547) महोदय ने 'कज्जई' रूप का उल्लेख किया है। इसका बहुवचन का रूप 'कजंति' (क्रियन्ते ) आचा. 87, सूत्रकृ. 714 इत्यादि में मिलता है । । ई) कज्जमाण ( सूत्रकृ. 431) ।। (ii) कुव से बने रूपों के प्रयोग : कुव्वति ( सूत्रकृ. 376, 417), कुवंति ( सूत्रकृ. 262, 418), कुव्वमाण ( आचा. 19 ), कुव्वं (आचा. 13, सूत्रकृ. 753), कुम्वित्था (आचा. 321), कुव्वह (आचा. 117),2 कुवेज्ज ( इसिभासियाई 33.7, 17), इत्यादि । पालि सुत्तनिपात में भी ऐसे प्रयोग मिलते हैं :-- कब्बति, कुब्बन्ति, पकुब्बमानो, कुब्बेथ, कुब्बये, इत्यादि ।। 1 देखिए S. M. Katre: Prakrit Languages and their Contribution to Indian Culture, p. 60 (1945). 2 इन प्रयोगों के लिए देखिए पिशल (508 और 517) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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