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अर्धमागधी में प्राचीन भाषाकीय तत्त्व
पालि और अशोक के शिलालेखों में यही प्रत्यय 'तवे' के रूप में मिलता है ।
( देखिए, गाइगर 204.1 और मेहेण्डले, पृ. 45) ।
आचारांग से उदाहरण :—तरित्तए, गर्मित्तए (1.2.3 6), ठाइत्तए (2.8.1), कहइत्तए, पूरइत्तए ( 1.3.2.2), धरित्तए (1.7.7.1) ।
पिशल महोदय (577) के अनुसार यह –'त्तए' प्रत्यय अर्धमागधी में बहु प्रचलित है । पिशल ने (578) ऐसे ही कुछ रूपों की वैदिक प्रयोगोंके साथ तुलना की है :
__ जैसे—पायए ( पातत्रै ), वत्थए ( वस्तवे । । (प) एक वैदिक क्रियाविशेषण : अणुवीयि, अणुवियि, अणुवीइ देखिए : आचा. सूत्र, 26, 140, 196, 197
पिशल महोदय (593) के अनुसार 'अनुवीति' के ही ये सब रूप हैं जो सम्बन्धक भूतकृदन्त नहीं है परंतु क्रियाविशेषण के रूप में प्रयुक्त है । इसे 'सावधानीपूर्वक' इस अर्थ में लेना चाहिए जैसा कि वैदिक प्रयोग में पाया जाता है । (फ) अमुक धातुओं के प्राचीन रूपों के प्रयोग (1) 'भू' = भव, भो, हव, हो, हु
___आचारांग और सूत्रकृतांग जैसे प्राचीन ग्रन्थों में 'भू' धातु के लिए 'भव' और 'भो' का प्रयोग बहुत अधिक मात्रा में मिलता है जबकि 'हव, हो, हु' का प्रयोग बहुत कम मात्रा में मिलता है । परवर्ती ग्रन्थों में 'भव, भो' का प्रयोग घटता जाता है जबकि 'हव, हो, हु' के प्रयोग बढ़ते जाते हैं ।
पालि के सुत्तनिपात जैसे प्राचीन ग्रन्थ के अट्ठकवग्ग में भू, भव, भो के प्रयोग 9 बार मिलते हैं जब कि हो, हु के 22 प्रयोग 1. देखिए ग्रयों की शब्दसूचियाँ (म. जै. वि.)
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