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प्राचीन अर्धमागधी की खोज में/के.आर. चन्द्र
साहइत्ताणं. 11.4 ( साधयित्वा ), जिणित्ताणं 29.16, कसित्ताणं 32.4, इत्यादि । इन प्राकृत प्रत्ययों के अनुरूप-त्वान प्रत्यय वाले. पालि. प्रयोगों के लिए ( बत्वान, कत्वान, छेत्वान ) और-यान तथा –यानं प्रत्ययों के लिए देखिए:-गाइगर 209, 214 तथा अशोक के शिलालेखों में प्रयुक्त-च्च एवं - च्य प्रत्ययों के लिए देखिए :-मेहेण्डले, पृ. 45 [ आगाच (आगत्य ), अधिगिच्य ( अधिकृत्य )] । (3) दृष्ट्वा के प्राचीन प्रयोग ।
दिस्स ( इसिभा. 28.22 ) और पिशल. 334 के अनुसार 'दिस्सा" ( सूत्रकृ., विवाहप.), पदिस्सा ( विवाहप.), दिस्सं (उत्तरा.),
इत्यादि जो पालि के 'दिस्वा' के समान हैं । (ध) वर्तमान कृदन्त के प्राचीन प्रयोग
(1) अन् = 'अ' प्रत्ययवाले प्रयोग अकुव्वं (अकुर्वन्) आचा. 19.1.271, जाणं ( जानन् ) इसिभा. 412 पालि सुत्तनिपात में भी ऐसे प्रयोग मिलते हैं :
अकुब्बं ( 47.10, 51.18 ) पस्सं ( 51.15) (2) —'आण' प्रत्यय
पिशल के अनुसार यह प्रत्यय कभी कभी ही मिलता है (562) ।
बुयाबुयाणा = ब्रुवन्तः ( स्त्रकृ. 1.7.390) सुत्तनिपात में भी ऐसे प्रयोग मिलते हैं :
___ वदानं 422, वदानो 50.11, पजानं 54.9, परिम्बसाना 51.1, इत्यादि । (न) हेत्वर्थक कृदन्त का प्राचीन प्रत्यय –'त्तए' (-इत्तए) - यह प्रत्यय अर्धमागधी साहित्य तक ही सीमित है जो वैदिक
-वै' का ध्वन्यात्मक परिवर्तन है, ( देखिए, पिशल-598) ।
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