Book Title: Prachin Ardhamagadhi ki Khoj me
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad

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Page 61
________________ ३८ ___.. प्राचीन अर्धमागधी की खोज में/के.आर चन्द्र शब्द विकसित हुए हैं जो परवर्तीकाल के शब्द हैं, जिनमें 'आया' अन्तिम स्तर का शब्द है । प्राचीनतम प्राकृत ग्रंथ आचारांग के प्रथम श्रुत स्कंध में अत्ता ही अधिक प्रमाण में और आता बहुत कम प्रमाण में मिलता है जब कि उसी ग्रंथ के द्वितीय श्रुतस्कंध में अप्पा अधिक मात्रा में मिलता है, उसमें अत्ता, आता और आया तो नहीं के समान हैं । उदाहरण:आचा. प्र. श्र. स्कंध – अत्ताण, अत्तसमाहिते, अत्तत्ताए, आततो, आतवं, आतावादी । आचा. द्वि. श्रु स्कंध - अप्पणो, अप्पाणं, अप्पणा, अप्पाणेणं । (घ) दन्त्य नकारयुक्त संयुक्त व्यंजन वह्नि (वह्निमारुयसंयोगा), इसिभासियाई 9.24 (शुबिंग) । परवर्ती काल में यही शब्द वण्हि के रूप में प्रयुक्त हुआ है । अन्य उदाहरण : ___अन्नतरी (अन्यतरी) आचा. 1.1.1.1; अन्न (अन्य), अन्नाय (अन्याय), छन्न, छिन्न, पनग, मन्ने (मन्ये), सूत्रकृ. । इन प्रयोगों में 'गण' के बदले 'न' मिलता है । यह प्राचीनता का द्योतक है । (च) प्रथम पुरुष सर्वनाम के प्रथमा बहुवचन का रूप 'वयं' प्र. पु. प्रथमा ब. व. का प्रचलित रूप अम्हे है । परंतु अर्धमागधी के प्राचीन अंशों में 'अम्हे' के बदले में वयं रूप भी बच गया है । उदाहरण : वयं पुण एवमाचिक्खामो (आचा. 1.4.2.138) जहिं वयं सव्वजणस्स वेस्सा (उत्तरा. (13.18 चित्तसंभूत) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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